________________
पात्रभेदाधिकारः
१४२
भोजं भोजं येप्युपालब्धुकामा । दायं दायं दानिनः सानुतापाः ॥ तद्दोषैः स्यादानपुण्यादिनाशो | जिह्वालौल्यं स्वान्यलाभं निर्हति ॥ ५४ ॥
अर्थ – जो साधु भोजन करते २ श्रावककी निंदा करते हैं तथा दाता उसकी पूर्ति करते २ संतप्त होता हो तो इन दोषोंसे दान पुण्यका नाश होता है । वह साधु भी जिह्वालोलुपतासे अपने अन्य लाभोंको खो लेता है ॥ ५४ ॥
सत्कर्पूरालवालप्रसृतमृगमदासिक्त हैमांबुपूर | क्षेत्रोताशेषकंदद्रमतृणलतिकाः प्राग्गुणान त्यजंति ॥ दुर्भावैर्दुष्कषायैः : कृतनुतिजपसम्यक्तपोवृद्धयो या । दुर्भावान्दुष्कषायान्प्रकटतरबलान्वर्धयन्ति स्फुटं ताः ॥५५
अर्थ - यदि खेतको कपूरका बांध बनावें और कस्तूरिका व गुलाब - जलसे उसे छिडके तो भी उसमें उत्पन्न होनेवाले कंद, सस्य व लतायें अपने पूर्व गुणोंको कभी नहीं छोड सकते | उसी प्रकार अच्छे साधुवोंके संसर्ग में रहनेपर भी जो दुर्भाव व स्तोत्र, ध्यान आदि करते हैं उनके वे भाव कभी अपितु दुर्भाव व कषायोंको बढाते ही हैं ॥ ५५ ॥ मातुल्यभ्यस्तवध्वः प्रविमलचरिताः स्तूयमानाम्सतभिः । स्वाचार्याभ्यस्तशिष्याः प्रविमलचरिताः स्तूयमाना मुनींद्रेः ॥ स्युः पित्रभ्यस्त पुत्राः प्रकटितमतयो धीरवीरा रमेशाः । स्वस्वाम्यभ्यस्तभृत्याः प्रकटितमतयो धीरवीरा हमेशाः ॥ ५६ ॥
दुष्कषायसे जप, छूट नहीं सकते
अर्थ — सासू के उपदेशको ठीक २ मनन करनेवाली सती निर्मल चारित्रवाली होती है । उसे सर्व पतिव्रता खियां प्रशंसा करती हैं ।