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चतुर्विधदाननिरूपण
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तद्भारान्ये स्वयं चादधति सकरुणास्तान् प्रणम्य प्रशस्या
जीवंतोऽमी यथा जीवत भुवि कृतिनो बाधकान्शंसयित्वा ॥ अर्थ-प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि वह दुःखियों के ऊपर दया करना सीखें । जो मनुष्य कोई बोजा उठाकर ले जा रहा हो, उस को पसीना आया हो, उस के गरदन के ऊपर अधिक दबाव पड रहा हो, पैरसे चलने के लिए असमर्थ हो रहा हो, मस्तक में भार के उठाने से जलन पैदा हुआ हो, शरीर के अवयव कंपने लगे हो, मुख सूज गया हो, ऐसी परिस्थिति से उन से उस भार को लेकर करुणाबुद्धि से स्वयं धारण करते हैं वे सत्पुरुष हैं। उन्हे वे दुःखी जीव प्रणाम करते हैं। उनकी प्रशंसा करते हैं। नीच प्रकृति के लोग उन्हे कष्ट पहुंचा तो भी वे उन को उपकार ही किया करते हैं ।
निमज्जंतीव पंकांधौ पतंतीव नगाग्रतः॥
शुद्धहग्बोधवृत्तेभ्यो वृथा भ्रश्यंति मोहिताः ॥१५३॥ अर्थ- जिस प्रकार कोई कीचड के कुए में फंस जाते हों, एवं पर्षत के ऊपर से गिरते हों उसी प्रकार संसारके मोह से फसे हुए मनुष्य व्यर्थ ही शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। संसार में मोह बडा जबर्दस्त कीचड है। उस में जो फंस जाते हैं फिर उन का उस से निकलना कठिन हो जाता है । एवं उसे पवित्र रत्नत्रय धर्म से च्युत होना पडता है जिस कारण से वह दर्घिसंसारी बन जाता है ॥ १५३ ॥
ध्रुवांबुजाताब्धिफलादयो यथा । नितांतपुण्योदयजातभूतयः॥ शिलाविलोत्पनकुजा यथा तथा ।
वृषे च पापे कतिचित्समश्रियः ॥ १५४ ।। अर्थ-नारियल के वृक्ष समुद्रके किनारे अधिकतर हुआ करते हैं।