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पात्रभेदाधिकारः
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दूषकाणां विशुद्धिर्न श्रोतृणामेव शोधनं ॥
व्याघ्रध्वनिश्रुतिभव्यमृगाणामिव भीतिदा ॥ १०५ ॥ अर्थ-निंदा करनेवालोंकी शुद्धि या सुधारणा किसी तरह भी नहीं होसकती । केवल सुननेवाले अपने कान का शोधन करसकते हैं अर्थात् हम निंदायुक्त वचनोंको नहीं सुनेंगे ऐसी प्रतिज्ञा सुननेवाले कर सकते हैं। जंगलमें रहनेवाले साधुजीवोंके लिये व्याघ्रके शब्दको सुननेकेलिये भी भय लगता है इसी प्रकार भव्यरूपी मृगोंको दुष्टजन रूपी व्याघ्रोंका वचन भी भय उत्पन्न करते हैं ॥ १०५ ।।
कुपात्र वर्णन. धर्मे यस्यानुरागो न न श्रुणोति गुरोर्वचः ॥
परं व्रतीव वर्तेत तं कुपात्रं विदुर्बुधाः ॥ १०६ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यको धर्ममें अनुराग नहीं और न गुरुवों के वचनको सुनता है परंतु दम्भसे अपनेको सबसे बडा व्रती व धर्मात्मा समझता हैं उसे मुनिगण कुपात्र कहते हैं ॥ १०६ ॥
स्वधर्माचरितं. चान्यधर्मवृत्तसमं च यः ॥
मनुते वर्ततेऽसौ दृक्कुपात्रं तं विदुर्बुधाः ॥ १७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने धर्मका आचरण व परधर्मके आचरणको बराबरीमें समझता है व तद्रूप आचरण करता है, उस मिथ्यादृष्टिको ऋषिगण कुपात्र कहते हैं। उसकी वृत्ति ठीक उसी प्रकारकी है जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री पर-पुरुष व अपने पतिको पतिभावसे देख रही हो ॥ १०७ ॥ स्वकीयपात्राणि सुरक्षयंतोऽन्यदीयपात्राण्यपि पालयंतः ॥ त एव सर्वेपि कुपात्रमुक्तम् पीडासुखं तेऽनुभवंति शश्वत् ।।