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संपादकीय निवेदन
श्रावकोंका अनुदिनका कर्तव्य इज्या व दत्ति है। जिस घरमें दान व पूजाके लिए स्थान नहीं है वह घर नहीं स्मशानभूमिके समान है। जिस संपत्तिका उपयोग दानपूजा कार्यमें नहीं होता है उस संपत्तिका होना न होना बराबर है ! इस लिए महर्षि कुंदकुंदस्वामीने आदेश दिया है कि .
दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ।
दान और पूजा ये दो ही श्रावकके मुख्यर्कतव्य हैं। यदि श्रावक कहलाकर जो दान और पूजा नहीं करें तो समझना चाहिये कि वह श्रावक नहीं है।
लोकातिशायी पुण्यके कारणसे श्री त्रिलोकीप्रभु तीर्थकर परमेष्ठी सर्वलोकहितकारी अक्षयदानको देते हैं। जिसके द्वारा लोकका उद्धार होता है। तीर्थकरप्रभुके दरबारसे अधिक पुण्यसूचक स्थान दूसरा नहीं है। उसके लिए समस्त भव्यप्राणी तरसते हैं। जहांवर त्रिलोकीनाथ दाता हों और गणधरादिक महर्द्धिक ऋषि पात्र हों वहांके दानका क्या वर्णन किया जाय । इसलिए आत्मकल्याणेच्छु सज्जनोंका कर्तव्य है कि उस अक्षयदानको देनेके सामर्थ्यको प्राप्त करें । उस के लिए अनेक भवोंसे आहारादि लौकिक दान देनेका अभ्यास होना चाहिये। सारांशतः मोक्षमार्गके लिए दानकार्यकी परम आवश्यकता है। इसके विना यह भव्य मुक्तिसाम्राज्यको सुखसे प्राप्त नहीं कर सकता है । संसार में परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंको स्वर्गमें जाकर कुछ काल विश्रांति मिलती है और वहांके जीव अपनेको सुखी मानते हैं। परंतु मनुष्य लोकमें जो विशिष्टदान देते हैं उससे प्रभावित होकर जब वे पंचाश्चर्य करने के लिए आते हैं तब वे देव अपने जीवनको धिक्कारते हैं कि इसने सब वैभवोंकि होते हुए भी हम पात्रदान नहीं कर सकते