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भावलक्षणविधानम्
अर्थ--मार्जार नकुलादि प्राणी जिस प्रकार रात्रिंदिन एकमेकको देखकर वैरविरोधको धारण करते हैं या रात्रिंदिन हिंसा करनेमें ही आनंदित होते हैं, इसी प्रकार इस संसारमें कोई कोई मनुष्य भी हिंसा करनेमें ही आनंद मानते हैं ॥ ३५ ॥
कोई कूर्मके तुल्य भ्रमण करते हैं. हिंसया दुर्गतिं गत्वा लब्धा हिंसत्यसन्नराः ।
उन्मजन्ति निमज्जन्ति केचित्कूर्मा इवाम्भसि ॥ ३६ ॥ अर्थ-कोई हिंसाके फलसे दुर्गतिको जाकर वहां भी पुनः प्राणियों का वध कर पुनः दुर्गतिमें परिभ्रमण करते हैं । इस प्रकार जलमें कछुबेके समान संसारसागरमें बराबर गोते लगाते फिरते हैं ॥३६॥
पापी उल्लूके तुल्य धर्मको देखते नहीं. प्रकाशद्वेषिणः केचि का वा खनका इव ।
धर्ममार्गप्रकाशं न पश्यन्ति दुरितान्धकाः ॥ ३७॥ अर्थ-उल्लू व घंस जिस प्रकार प्रकाशसे नफरत करते हैं उसी प्रकार कोई पापीजीव धर्ममार्गके प्रकाशको देखना नहीं चाहते हैं ॥३७॥
कोई चूहेके तुल्य विवेकहीन होते हैं. हिताहितं न जानन्तो वृषाः पश्यन्त्यहर्निशम् ।।
सद्गुणोच्छेदिनी लोके यथा केचिद्गुणापहाः ॥३८॥ अर्थ-जिप्त प्रकार चूहे अपने हिताहितको नहीं देखते, तथा उत्तम तंतुओंसे निर्मित वस्त्रादिकोंको नष्ट करते हैं। इसी प्रकार कोई २ गुणको अपहरण करनेवाले पुरुष सद्गुणको नाश करते हैं एवं अपने हिताहितको नहीं देखते हैं ॥ ३८ ॥
कोई कौवेके तुल्य मर्मभेदी होते हैं. पश्चाद्यङ्गवणान् दृष्ट्वा खादन्त्यहीव वायसाः । केचिन्मर्माणि सर्वेषां सर्वदोद्घाटयन्त्यलम् ॥ ३९ ॥