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दानशासनम्
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कलिकालके राजा. टंका इव राजानः सुकृतशिलोच्चयविदारका एव स्युः।
पुण्यं पहिजलमिव ते नदीरया विचिन्वते पापं ॥१६॥ अर्थ-कलिकालके राजा टंकेके समान होते हैं । जिस प्रकार टंक पत्थरको विदारित करता है, उसी प्रकार वे भी पुण्यरूपी शिलाको विदारित करते हैं। वे लोग कुएके जलके समान पुण्य और नदीके जलके समान पापको अर्जन करते हैं अर्थात् थोडा तो पुण्य और बहुत पाप अर्जन करते हैं ॥ १६ ॥
भक्तद्वेषी खलप्रीतः सतृष्णो हितरुड्जडः ।
मोहवानाहितेच्छो वा ज्वरी वा भाति भूपतिः ॥ १० ॥ अर्थ-पापोदयसे वह राजा भक्तोंका द्वेषी, दुर्जनोंका मित्रा लोभी, हितैषियोंका शत्रु, अज्ञानी एवं अपने अहितको चाहनेवाला एक ज्वरग्रस्त मनुष्यके समान रहता है ॥ १७॥
और भी इसी विषयको स्पष्ट करते हैं. यद्यद्वर्णानुसंक्रांतास्तत्तद्वर्णानुगामिनः ।
स्फटिका इव राजानो भासते गणिका इव ॥ १८ ॥ अर्थ-दुहृदय के राजागग वेश्यावोंके समान होते हैं। जिस प्रकार स्फटिक जिस २ वर्णके पदार्थोंसे घिरता हो उसीका अनुकरण करता है अर्थात् उसी वर्णसे दिखता है। उसी प्रकार कलिकालके राजा जैसा रंग दीखें वैसे पलटते जाते हैं। राजावोंका हृदय विश्वास करनेयोग्य नहीं है ॥ १८ ॥
दुर्भावास्सकषायाश्च कृतदानतपःफलाः ।।
जीवा भवंति राजानः पापकृत्पुण्यवर्द्धनाः ॥ १९ ॥ अर्थ-पूर्वजन्ममें जिन्होंने खोटे भाव और कषायोंसे युक्त होकर