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दानशासनम्
मनकें समय सोता हो तो उठता नहीं, बैठा होतो उठकर खड़ा नहीं होता है, खडा हुआ हो तो नमस्कार भी नहीं करता है ॥ ११३ ॥
मनुष्य कपि होता है। कृतगर्वोऽनमन्धर्मेऽनादरी यो भवांतरे ।
स पुपान्कुजशाखासु जीवन कपिभवेत् ॥ ११४ ॥ अर्थ-जो दानकार्ममें यहांपर गर्व करता है, एवं धर्मकार्यमें व धार्मिक सज्जनोंमें अनादर करता है, वह आगेके भवमें जाकर वृक्षोंकी शाखामें जीनेवाला बंदर होकर पैदा होता है ॥ ११४ ॥
मानी दातासे हानि दातायं गर्वितो नष्टोऽगर्वस्तुग्वच्चरन्मुनि ।
नष्टत्वनोभयोर्लोको बहुनष्टो भवेत्सदा ॥ ११५ ॥ अर्थ- गर्ववान् दाता अपने गर्वके कारणसे नष्ट होता हैं । मुनिगर्वरहित होनेपर भी बच्चे के समान इधर उधर स्वेच्छाचार पूर्वक . फिरे तो वह भी नष्ट होता है। इन दोनोंके नष्ट होनेसे लोक और राजा नष्ट होता है । लोक, राजा, दाता और पात्रों के नष्ट होनेसे असंख्यात प्राणियोंकी हानि होती है, धर्मकी हानि होती है ॥ ११५ ॥
राजसदान + साधुप्रेरणजातमेकघटिकाहाशियोत्थभ्रमम् ।
सत्पात्रांचितभूरिवर्णनरसक्लिनान्तरंगोद्भवम् । पात्राकूतदयारसप्रशमितक्रोधोत्थळोभोदयम् ।
यत्तद्राजसदानमुक्तमृषिभिः कारुण्यपण्यापणैः ॥ ११६ ॥ + यदात्मवर्णनप्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रमम् ।
परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजसं मतम् ॥ आतिथेयं स्वयं यत्र या पात्रपरीक्षणं । गुणाः श्रद्वादयो यत्र दानं तत्सात्विकं विदुः ॥