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चतुर्विधदानानरूपण
अर्थ-भगवान्के चरणमें चढाये हुए गंधोदक पुष्प वगैरह भगवान्के पवित्र चरणके स्पर्श होनेसे पवित्र हो जाते हैं । अत एव देवेंद्रादिके भी ललाट, मस्तक नेत्रमें धारण करने योग्य हैं। उनके स्पर्श करने मात्र ही पूर्व में अनेक जन पवित्र होचुके हैं। इस लिये उन गंधोदक आदिका मन्यजीव सदा ललाट, नयनद्वय व मस्तकमें सदाकाल भक्तिसे धारण करें ॥ ८४ ॥
सिद्धक्षेत्रगतीच्छयैव निटिले गंधोऽचितों लिप्यते । दृष्टिज्ञानविशुद्धयेऽचिंतजलं दृष्टिद्वये षिच्यते ॥ ब्रह्मत्वस्पृहयैव मूर्ध्नि कुसुमं संधार्यते पूजितं । जैनस्तत्रयमेव धार्यमनिशं रत्नत्रयव्यक्तये ॥ ८५ ॥
अर्थ-मोक्षस्थानको प्राप्त भगवान् सिद्धों के चरणमें चढाया हुआ गंध ललाटमें इसलिये लगाया जाता है कि सिद्धस्थानमें अपना गमन शीघ्र हो । दोनों आंखोंमें गंधोदक लगानेका प्रयोजन यह है कि हमारे सम्यक्त्व व ज्ञानमें विशुद्धि होवे । मस्तकमें भगवान्का चढाया हुआ पुष्प धारण करनेका प्रयोजन यह है कि हमें आत्मतत्वकी सिद्धि हो, जैनकुलोत्पन श्रावकोंको उचित है कि सदा रत्नत्रयके प्रकट होने के लिये उन तीनों स्थानोंमें गंध, उदक, और कुसुमको धारण करें ॥८५॥
भोगेच्छयैव नादेयं गंधांबुकुसुमत्रयं । मुनयो मितमादेयं प्रसादं प्रवदंति तत् ॥ ८६ ॥
अर्थ-भगवान्को अर्चित गंध, कुसुम, गंधमिश्रित कुसुम भोगकी इच्छासे कभी ग्रहण नहीं करें, भक्तिसे प्रसाद समझ कर थोडा ग्रहण करें । इसे मुनिगण प्रसाद कहते हैं ॥ ८६ ॥
शुद्धावभिषिक्तजलं सिंचेत्पूर्वांगमाईपपि भूरि । लिपेदचितगंधं रक्षार्थ युधि च सूनपीडायां ॥ ८७ ॥