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दानशासनम्
निश्शंकादिगुणान्वितास्सकरुणा निर्धर्षनिर्मत्सराः । निर्दोषोत्तमदृष्टिनिर्मलजना मोक्षं श्रयंति ध्रुवं ॥ ७१ ।।
अर्थ-पर्वतपर उत्पन्न वृक्ष मनुष्याद्यगम्यरूप से बढता है, उसी प्रकार भंगरहित, अनेक झरनोंसे गीले हुए है मूल जिनके ऐसे वृक्षोंके समान सच्चरित्रबाले, निश्शंकादि गुणोंसे युक्त, करुणासहित, घर्षणा व मत्सर भावनाओंसे रहित, निर्दोषसम्यग्दृष्टि नियमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ ७१ ॥
दुर्गजेषु कुजेष्वग्नौ जातेऽन्योन्यपघर्षणात् ॥ ___दग्धास्त इव दृग्वृक्ष क्रोधवह्निर्दहेद्धृवम् ॥ ७२ ॥
अर्थ- पहाडके वृक्षोंके समूहमें उत्पन्न वृक्ष, वृक्षोंके परस्पर वर्षणसे उत्पन्न अग्निसे जिस प्रकार जल जाता है इसी प्रकार क्रोधाग्नि' से सुदृष्टिका सम्यग्दर्शन नियमसे जलता है ॥ ७२ ॥
क्रोधोऽग्निः सुकृतं समिदृगशनं सर्दिया दुष्षमः । शाला कुण्डवपुः कषायनिचयास्सामाजिका दुर्वचः ॥ मंत्री होत जना विभावनिकरास्तद्यज्ञकर्ताघरा- । मिथ्यात्वं नृपतिः फलं बहुविधं तत्स्यानिगोदाप्तये ॥७३॥
अर्थ- यह संसार एक महायज्ञ के समान है | क्रोध अग्नि है। पुण्य समिधा है । सम्यग्दर्शन अन्नाहुति है। दया आज्याहुति है। यह पंचमकाल यज्ञशाला है । यह शरीर यज्ञकुण्ड है। कषायवर्ग यज्ञकर्ममें भाग लेनेवाले सामाजिक है । दुष्टवचन मंत्र है। विभाव परिणाम आहुति देनेवाले हैं या याज्ञिक पुरोहित हैं । वर्मराज मिथ्यात्व उस यज्ञ के कर्ता राजा है। उस यज्ञका फल बहुत प्रकारसे मिलता है । निगोदको प्राप्त होने के लिये भी वह साधन है ॥७३॥
क्रोधस्त्वाभवजो भवक्षणशमः कोपस्तयोः क्रोधतः । सद्धर्मा मधुपिंगलेन निहतस्तक्षिप्तलोकैश्च ते ॥ .