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व्रत कथा कोष
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ये गृहन्ति सूर्योदयं शुभ दिनमसद् दृष्टिपूर्वा नराः । तेषां कार्यमनेकधा व्रत विधिर्मार्गमेवेति च ॥ धर्माधर्म विचार हेतु रहिताः कुर्वन्ति मिथ्यानिषम् ।
तियंकशुभ्रमेवाश्रिता जिनपतेर्बाह्ययं मता धर्मतः ॥१०॥
अर्थ-जो मिथ्यादष्टि सूर्योदय में रहने वाली तिथि को ही शुभ मानते हैं, उनके व्रत और तिथियां- अनिश्चित रहने के कारण अनेक हो सकते हैं तथा व्रत विधि और कार्य भी अनिश्चित हो होते हैं । ये धर्म और अधर्म के विचार से रहित होकर असत् तिथि में व्रत करते हैं, जिससे जैन धर्म से विरुद्ध आचरण करने के कारण तिर्यञ्च और नरक गति को प्राप्त होते हैं । अभिप्राय यह है कि आगमविरुद्ध तिथियों को ही प्रमाण मानकर व्रत करना आगमविरुद्ध है। आगमविरुद्ध व्रत करने से नरक और तिर्यंचगति में भ्रमण करना पड़ता है।
---- विवेचन-विधि पूर्वक व्रत करने से समस्त पाप सन्ताप दूर हो जाते हैं, पुण्य की वृद्धि होती है तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों ने व्रत को तिथि का प्रमाण सूर्योदय काल में कम से कम छह घटी प्रमाण माना है। इससे कम प्रमाण तिथि होने पर पिछले दिन व्रत करने का आदेश दिया है। अन्य धर्म वालों ने उदय तिथि को ही प्रमाण माना है । यदि उदय काल में एक घटी या इससे भी कम तिथि हो तो व्रत के लिए ग्रहण करने का आदेश दिया है।
उदाहरणार्थ-यों कहना चाहिए 'क' व्यक्ति को चतुर्दशी का व्रत करना है । चतुर्दशी शनिवार को एक घटी दस पल है । जैनाचार्यों के मतानुसार चतुर्दशी का व्रत शनिवार को नहीं करना चाहिए क्योंकि इस दिन चतुर्दशी उदय काल में छह घटी से न्यून है, अतः शुक्रवार को ही व्रत करना होगा। अजैन/वैदिक प्राचार्यों के के मतानुसार चतुर्दशी शनिवार को है। इनके मतानुसार उदयकालीन तिथि हो दिनभर के लिए ग्रहण की जाती है ।
- व्रत विधि में सबसे आवश्यक अंग समय शुद्धि है । असमय का व्रत कल्याणकारी नहीं हो सकता। सम्यग्दृष्टि श्रावक अपने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए व्रत करता है वह व्रत के दिन अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार को अत्यन्त