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२४ तत्त्वार्थ सूत्र
निःशंक होना सम्यक्त्व का मूल आधार है और इस गुण से निर्भयता की भावना स्वतः उद्भूत एवं दृढ़ होती हैं ।
(२) निक्कंखिय (निष्कांक्षता) - अन्य दर्शनों के आडम्बर-वैभव आदि से आकर्षित होकर उन्हें स्वीकार करने की इच्छा न करना तथा अपने धर्माचरण के फलस्वरूप इस लोक अथवा परलोक के भौतिक सांसारिक सुखों की इच्छा न करना । . (३) निव्वितिगिच्छा (निर्विचिकित्सा)- अपने द्वारा आचरित धर्म के फल में सन्देह नहीं करना कि मुझे अमुक धर्मक्रिया का फल मिलेगा या नहीं और रत्नत्रय की साधना से शुचिभूत पवित्र-साधुओं के मलिन वस्त्र व शरीर को देखकर जुगुप्सा न करना तथा देव-गुरु-धर्म की निन्दा न करना-यह सम्यक्त्व का तीसरा निर्विचिकित्सा अंग है ।।
(४) अमूढदिठ्ठि - इसका अभिप्राय है - मोहमुग्ध दृष्टि या विश्वास न रखना । मूढ़ता का अर्थ मुग्धता अथवा मूर्खता दोनों ही हैं । संसाराभिनन्दी जीव ऐसी अनेक मूर्खताओं में मुग्ध बना रहता है । कुछ प्रमुख मूढ़ता इस प्रकार है -
(क) देवमूढ़ता - राग-द्वेषयुक्त देवों की उपासना करना, उनके निमित्त हिंसा आदि पाप करना ।
(ग) गुरुमुढ़ता - निन्द्य या पतित आचार वाले साधुओं को गुरु मानना । (ख) लोकमूढ़ता- लोक प्रचलित कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों का पालन धर्म समझकर करना, जैसे गंगा में स्नान करने पर पाप धुल जाते हैं आदि ।
(घ) शास्त्रमूढ़ता - हिंसा, इन्द्रिय-विषय, जुआ, चोरी, रागद्वेषवर्धक असत्य कल्पना वाले ग्रन्थों को धर्म शास्त्र समझना ।
(च) धर्ममूढ़ता - आडम्बर, डोंग, प्रपंचयुक्त धर्मों को सच्चा तथा कल्याणकारी, मोक्षदायी धर्म मानना ।
(५) उववूहण (उपवृहण अथवा उपगृहन) - गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करना, उनके प्रति प्रमोद भाव रखना तथा अपने गुणों को यथासंभव गुप्त रखना, उनका प्रचार न करना ।
(६) थिरीकरण (स्थिरीकरण) - सम्यक्त्व अथवा चारित्र से डिगते हुए साधर्मी भाइयों को धर्म में पुनः स्थिर करना तथा स्वयं अपनी आत्मा के परिणाम भी यदि पर-भावों, राग-द्वेष रूप परिणमें तो उनका पुनः आत्म
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