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२२ तत्त्वार्थ सूत्र
किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव पूर्ण रूप से आत्मविश्वासी होता है, उसके हृदय में न अपनी आत्म-शक्ति के प्रति शंका होती है और न जिन प्रवचनों के प्रति । समयसार (गाथा २२८) में भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये गये है सम्मद्दिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया चेव ।
सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय और शंकारहित होते हैं ।
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स्थानांग सूत्र (स्थान ७) में भय के सात प्रमुख भेद बताये हैं (१) इहलोकभय इस लोक अर्थात् सजातीय मानव समाज से स्वजन, शत्रु आदि से भयभीत होना ।
(२) परलोकभय - विजातीय, पशु, पक्षी, देव आदि से भयभीत
रहना ।
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(३) अत्राणभय सम्यक्त्वी संसार में पुत्र आदि परिवारीजनों, धनसम्पत्ति आदि भौतिक वैभव को कभी अपना रक्षक या त्राता नहीं मानता, इसीलिए उसे अत्राण भय नहीं सताता । वह तो अपनी आत्मा, पंचपरमेष्ठी और धर्म की शरण ग्रहण करके सदा निर्भय रहता है ।
अत्राणभय में ही आजीविका अथवा आदानभय भी गर्भित है । सम्यक्त्वी जीव इस बात का भय नहीं करता कि नौकरी छूट जायेगी तो क्या होगा, अथवा व्यापार में नुकसान हो जायेगा तो क्या होगा ? क्योंकि उसे कर्मों पर पूरा विश्वास होता है, जानता है - अन्तराय आयेगी तो नौकरी भी छूटेगी और व्यापार में भी नुकसान होगा और जब अन्तराय टूटेगी, पुण्य का उदय होगा तो स्वयमेव आजीविका के साधन बनेंगे, धनागम होगा यानि कि संकट की घड़ियों में भी उसका आत्म-विश्वास डगमगाता नहीं ।
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(४) अकस्मात् भय मानव जीवन में एक्सीडेंट आदि अचानक ही दुखदायी घटनाएँ हो जाती हैं । किन्तु ऐसी घटनाओं की पूर्वकल्पना करके सम्यक्त्वी जीव कभी भयभीत नहीं होता । किसी प्रकार की अनागत की दुष्कल्पना से वह विचलित नहीं होता ।
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उसके मस्तिष्क में यह विचार ही नहीं आते कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाय, कहीं कोई पाकिटमार मेरी जेब साफ न कर दे, चोर-डाकू मेरे धन का अपहरण न कर लें, अन्य कोई आकस्मिक घटना न हो जाय ।
(५) वेदनाभय
वेदना अथवा पीड़ा किसी शारीरिक-मानसिक
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