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समवायांग
६३ पुट्ठिया, भोगवयता, वेणइया, णियहइया, अंक, गणिय, गंधव्य, आदस्स, माहेसर, दामिली और पोलिंदी लिपियाँ गिनाई गई हैं।' उन्नीस वस्तुओं में नायाधम्मकहाओ के प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन गिनाये हैं। चौबीस तीर्थंकरों में महावीर, नेमिनाथ, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य को छोड़ कर शेष उन्नीस तीर्थंकरों को गृहस्थ प्रजित कहा है। तत्पश्चात् बीस असमाधि , के स्थान, इक्कीस शबल चारित्र, बाईस परीषह, दृष्टिवाद के बाईस सूत्र आदि का प्ररूपण है। दृष्टिवाद के बाईस सूत्रों में कुछ सूत्रों का त्रैराशिक' । गोशालमत) सूत्र परिपाटी के अनुसार किये जाने का उल्लेख है। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के तेईस अध्ययन, चौबीस देवाधिदेव ( तीर्थंकर), पच्चीस भावनायें, सत्ताईस अनगार के गुण, उनतीस पापश्रुत-प्रसंग आदि का प्ररूपण है । पापश्रुतों में भौम, उत्पात, स्वप्न, अंतरीक्ष, आंग, स्वर, व्यंजन और लक्षण इन अष्टांग निमित्तों को गिनाया है। सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से इन श्रुतों के चौबीस भेद बताये हैं। इनमें विकथानुयोग, विद्यानुयोग, मंत्रानुयोग, योगानुयोग और अन्य तीर्थिक-प्रवृत्तानुयोग के मिला देने से उनतीस भेद हो जाते हैं। तत्पश्चात्
१. लिपियों के लिये देखिये पन्नवणा (१. ५५ अ); विशेषावश्यक. भाष्य (५. ४६४); हरिभद्र का उपदेशपद; लावण्यसमयगणि, विमल
प्रबंध (पृष्ठ १२३); लचमीवल्लभ उपाध्याय, कल्पसूत्र टीका; ललितविस्तर (पृ० १२५ इत्यादि); मुनि पुण्यविजय, चित्रकल्प, पृष्ठ ६; भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला, पृष्ठ ६-७; ललितविस्तर (पृष्ठ १२५) में ६४ लिपियों का उल्लेख है।
२. कल्पसूत्र के अनुसार आर्य महागिरी के शिष्य ने त्रैराशिक मत की स्थापना की थी।
३. इससे निमित्तसंबंधी शास्त्र के विस्तृत साहित्य होने का पता लगता है । अष्टांग महानिमित्त शास्त्र को पूर्षों का अंग बताया है।