Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत अन्वय सहित सामान्यार्थ:-(ज) जो ( सल्लवखणियं ) सत् लक्षणवाला है, ( उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ) उत्पाद-व्यय-धौव्य सहित है, (वा) अथवा ( गुणपज्जयासयं ) गुण
और पर्यायोंका आश्रयरूप है, (तं) उसको अर्थात् उक्त तीन लक्षण वाले को (सवण्हू ) सर्वज्ञ भगवान् [ दव्वं ] द्रव्य ( भण्णंति ) कहते हैं।
विशेषार्थ-द्रव्यका लक्षण सत् रूप द्रव्यार्थिक नयसे किया गया है । इससे बौद्धमतका निषेध है जो सब वस्तुको असत् मानते हैं। पर्यायार्थिक नयसे उत्पाद-व्यय-प्रौव्य या गुणपर्यायवान लक्षण किया गया । इससे कूटस्थ नित्य माननेवाले सांख्य और नैयायिकका निषेध है । सत्ता लक्षण द्रव्य है ऐसा कहनेसे उत्पाद-व्यय-प्रौव्य लक्षण या गुण-पर्यायवान लक्षण नियमसे प्राप्त होता है। उत्पाद व्यय धौव्ययुक्त है ऐसा लक्षण करनेसे सत्ता लक्षण या गुण पर्यायवान लक्षण नियमसे प्राप्त होता है । गुणपर्यायवान लक्षण करनेसे उत्यादव्यय- ध्रौव्य लक्षण या सत्ता लक्षण नियमसे प्राप्त होता है । एक कोई लक्षण को कहते हुए अन्य दो लक्षण किस तरह प्राप्त होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि इन तीनों लक्षणों में परस्पर अविनाभाव है अर्थात् सब एक दूसरेमें गर्भित है। यहाँ यह भावार्थ है कि शुद्ध जीवद्रव्य उपादेय हैं जिसका शुद्ध सत्ता लक्षण है क्योंकि उसमें मिथ्यात्व व रागद्वेषादि नहीं हैं। उसी का पर्याय दृष्टि से अगुरुलघु गुणके द्वारा षड्गुणी हानि वृद्धि होते हुए शुद्ध उत्याद- व्यय-ध्रौव्य लक्षण है तथा अकृत्रिम ज्ञानादि अनन्तगुण रूप व सहज सुख सिद्ध पर्यावरूप लक्षण है ऐसे तीन लक्षणोंको थारनेवाला शुद्ध जीवास्तिकाय है । इस व्याख्यानसे
क्षणिक एकान्त मतके माननेवाले बौद्ध का, नित्य एकान्त मतको माननेवाले सांख्यका, नित्य तथा अनित्य दोनोंका एकान्त माननेवाले नैयायिक और मीमांसक मतका निराकरण है। ऐसा ही कथन सर्व जगह अन्य मतके व्याख्यानके समय जानना चाहिये । क्षणिक एकान्तमतको क्यों दूषण देते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जिसने घट आदि बनाने की क्रिया प्रारंभ की वह उस ही क्षणमें नष्ट हो गया तब उससे घटकी क्रिया पूर्ण नहीं हो सकी इत्यादि । इसी तरह नित्य एकांत माननेमें यह दूषण है कि जो बैठा है उसे बैठा ही रहना चाहिये, जो सुखी है यह सुखी ही रहेगा, जो दुःखी है वह दुःखी ही रहेगा इत्यादि । टंकोत्कीर्ण कूटस्थ नित्य पदार्थ होनेसे उनमें अन्य पर्याय नहीं हो सकेगी इसी तरह परस्पर अपेक्षा बिना द्रव्यपर्याय दोनोंका एकांत माननेसे पूर्वमें कहे हुए दोनों ही दोष प्राप्त होंगे। जैनमतमें परस्पर सापेक्ष द्रव्यपर्याय माननेसे कोई दूषण नहीं आसकता है ।।१०।।
इस तरह तीसरे स्थलमें द्रव्यका लक्षण सत्तादि तीन प्रकार है इस सूचनाकी मुख्यतासे गाथा पूर्ण हुई।