Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 378
________________ ३७४ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका हुआ पर समय अर्थात् पर पदार्थोंमें रत हुगाएपरितवान हो रहा है। अब यह और निर्मल विवेक ज्योतिसे उत्पन्न परमात्माकी अनुभूतिरूप आत्माकी भावना करता है तब स्वसमय रूप आत्माके चारित्रमें चलनेवाला या रत होनेवाला होता है । इस तरह स्वसमयका व पर समयका स्वरूप जानकर जो कोई जीव निर्विकार स्वसंवेदन रूप स्वसमयमें लीन होता है तब यह केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी प्रगटतारूप मोक्षसे विपरीत जो बंध है उससे छूट जाता है । इससे यह जाना जाता है कि स्वानुभव लक्षण स्वसमयरूप या जीवके स्वभावमें निश्चल चारित्ररूप ही मोक्षमार्ग है ।।१५५।। इस तरह स्वसमय और परसमयके भेदकी सूचना करते हुए गाथा पूर्ण हुई। परचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत् । जो पर-दव्वम्मि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं । सो सग-चरित्त-भट्ठो पर-चरिय-चरो हवदि जीवो ।।१५६।। यः परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावम् । स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः ।।१५६ ।। यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरित्रचर इत्युपगीयते, यतो हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितं, परद्रव्ये सोपरागोपयोगवृत्ति; परचरितमिति ।। १५६।। __ अन्वयार्थ— ( य: ) जो ( रागेण ) रागसे ( परद्रव्ये ) परद्रव्यमें ( शुभम् अशुभम् भावम् ) शुभ या अशुभ भाव ( यदि करोति ) करता है, ( सः जीवः ) वह जीव ( स्वकचरित्रभ्रष्टः ) स्वचरित्रभ्रष्ट ऐसा ( परचरितचरः भवति ) परचारित्रका आचरण करनेवाला है। टीका-यह, परचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है । जो ( जीव ) वास्तवमें मोहर्नायके उदयका अनुसरण करनेवाली परिणतिके वश रागरूप उपयोगवाला [ उपरक्त-उपयोगवाला] होता हुआ परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह ( जीव ) स्वचारित्रसे भ्रष्ट परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि वास्तवमें स्वद्रव्यमें शुद्ध-उपयोगरूप परिणति वह स्वचारित्र है और परद्रव्यमें रागसहितउपयोगरूप परिणति वह परचारित्र है ।।१५६।।। ___ सं० सा०-अथ परसमयपरिणतपुरुषस्वरूपं पुनरपि व्यक्तीकरोति, जो परदज्वह्मि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं-य: परद्रव्ये शुभमशुभं वा रागेण करोति यदि भावं, सो सगचरितभट्ठो-सः स्वकचरित्रभ्रष्टः सन् परचरियचरो हवदि जीवो—परचरित्रचरो भवति जीव

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