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पंचास्तिकाय प्राभृत
३८३ त्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते । अतो निश्शायव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न इति ।।१६१।।
अन्वयार्थ -( यः आत्मा ) जो आत्मा ( तैः त्रिभिः खलु समाहितः ) इन तीन द्वारा वास्तवमें समाहित होता हुआ ( अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र द्वारा वास्तवमें एकाग्र-अभेद होता हुआ ) ( अन्यत् किंचित् अपि ) अन्य कुछ भी ( न करोति न मुञ्चति ) करता नहीं है या छोड़ता नहीं है, ( सः ) वह ( निश्चयनयेन ) निश्चयनयसे ( मोक्षमार्ग: इति भणित: ) 'मोक्षमार्ग' कहा गया है।
टीका-व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे, निश्चयमोक्षमार्गका यह कथन है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा समाहित हुआ आत्मा ही जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होने के कारण निश्चयसे मोक्षमार्ग है।
यह आत्मा वास्तवमें कथंचित् ( -किसी प्रकार ) अनादि अविद्याके नाश द्वारा व्यवहारमोक्षमार्गको प्राप्त करता हुआ, धर्मादिसम्बन्धी तत्त्वार्थ अश्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोसम्बन्धी अज्ञानके और अतपमें चेष्टाके त्यागके अर्थ तथा धर्मादिसम्बन्धी तत्त्वार्थश्रद्धानके अंगपूर्वगत पदार्थोसम्बन्धी ज्ञानके और तपमें चेष्टाके ग्रहणके अर्थविविक्त ( भेद ज्ञान ) भावरूप व्यापार करता हुआ, और किसी कारण से ग्राह्यका त्याग हो जाने पर तथा त्याज्यका ग्रहण हो जाने पर उसके प्रतिविधानका ( प्रतिकारकी विधिका अर्थात् प्रायश्चित्त आदिका ) अभिप्राय करता हुआ, जिस काल और जितने काल तक विशिष्ट भावनासौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रके साथ अंग-अंगीभावसे परिणति द्वारा उनसे समाहित होकर, त्यागग्रहणके विकल्पसे शून्यपनेके कारण ( भेदात्मक ) भावरूप व्यापार विरामको प्राप्त होनेसे ( रुक जानेसे ) सुनिष्कंफरूपसे रहता है, उस काल और उत्तने काल तक यही आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होनेके कारण निश्चयसे 'मोक्षमार्ग' कहलाता है। इसलिये, निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य-साधनपना अत्यन्त घटित होता है ।।१६१।।
सं० ता०-अथ पूर्वं यद्यपि स्वसमयव्याख्यानकाले "जो सब्दसंगमुक्को" इत्यादि गाथाद्वयेन निश्चयमोक्षमार्गों व्याख्यात: तथापि पूर्वोक्तव्यवहारमोक्षमार्गेण साध्योयमिति प्रतीत्यर्थं पुनरप्युपदिश्यते, भणिदो-भणितः कथितः । केन । णिच्छयणयेण-निश्चयनयेन । सः कः । जो अप्पा-य: आत्मा । कथंभूतः । तिहि तेहिं समाहिदो य-त्रिभिस्तैर्दशनज्ञानचारित्रैः समाहित एकाग्रः । पुनरपि किं करोति यः । ण कुणदि किंचिवि अण्णं, ण मुयदि-न करोति किंचिदपिशब्दादात्मनोन्यत्र क्रोधादिकं, न च मुंचत्यात्माश्रितमनंतज्ञानादिगुणसमूह । सो मोक्खमग्गोत्ति-स एवं गुणविशिष्टात्मा । कथंभूतो भणित: ? मोक्षमार्ग इति। तथाहिं—निजशुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गस्तावत् तत्साधकं कथंचित्स्वसंविनिलक्षणाविद्यावासनाविलयानेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो गुणस्थानसोपानक्रमेण निजशुद्धात्मद्रव्यभावनोत्पत्रनित्यानंदैकलक्षणसुखा