Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 414
________________ ४१० मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका __ अन्वयार्थ---(प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया ) प्रवचनकी भक्तिसे प्रेरित ऐसे मैंने ( मार्गप्रभावनार्थ ) मार्गकी प्रभावनाके हेतु ( प्रवचनसारं ) प्रवचनके सारभूत ( पंचास्तिकसंग्रहं सूत्रम् ) 'पंचास्तिकायसंग्रह'' सूत्र ( भणितम् ) कहा। टीका—यह, कर्ताकी प्रतिज्ञाकी पूर्णता सूचित करनेवाली समाप्ति है। ‘मार्ग-परम वैराग्य उत्पन्न कराने में प्रवण-कुशल पारमेश्वरी परम आज्ञाका नाम है, उसकी प्रभावना-प्रख्यापन द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा उसका समुद्योत करना है, उसके हेतु ही ( -मार्गकी प्रभावनाके हेतु ही ), परमागमकी ओरसे अनुरागके वेगसे जिसका मन अति चलित होता था ऐसे मैंने यह ‘पंचास्तिकायसंग्रह' नामका सूत्र कहा—जो कि भगवान सर्वज्ञ द्वारा उपज्ञ होनेसे ( पहिली बार उपदिष्ट होनेसे.) 'सूत्र' है, और संक्षेपसे समस्तवस्तुतत्त्वका ( सर्व वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपका ) प्रतिपादन कर्ता होनेसे, अति विस्तृत भी प्रवचनका सारभूत है। मार शावकः । श्रीमानत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ) प्रारम्भ किये हुए कार्यके अन्तको पाकर, अत्यन्त कृतकृत्य होकर, परमनैष्कर्म्यरूप शुद्धस्वरूपमें विश्रान्त हुए ( -स्थिर हुए )ऐसे श्रद्धे जाते हैं ( अर्थात् ऐसी हम श्रद्धा करते हैं ) ।।१७३।। ___ इस प्रकार समयव्याख्या नामको टीकामें नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्ग प्रपंचवर्णन नामका द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। ( अब, 'यह टीका शब्दोंने की है, अमृतचन्द्रसूरिने नहीं' ऐसे अर्थका एक अन्तिम श्लोक कहकर श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव टीकाकी पूर्णाहुति करते हैं-) _श्लोकार्थ-अपनी शक्ति जिन्होंने वस्तुका तत्त्व ( - यथार्थ स्वरूप ) भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने वह समयकी व्याख्या ( -अर्थसमयका व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रकी टीका ) की है, स्वरूपगुप्त ( -अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त ) अमृतचन्द्रसूरिका ( उसमें ) किंचित् भी कर्तव्य नहीं है (८) सं० ता०-अथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवः स्वकीयप्रतिज्ञा निर्वाहयन्, ग्रन्धं समापति, पंचास्तिकायसंग्रहं—सूत्रं । किंविशिष्टं । प्रवचनसारं । किमर्थं । मार्गप्रभावनार्थमिति । तथाहिं— मोक्षमार्गो हि संसारशरीरभोगवैराग्यलक्षणो निर्मलात्मानुभूतिस्तस्याः प्रभावनं स्वयमनुभवनमन्येषां प्रकाशनं ब तदर्थमेव परमागमभक्तिप्रेरितेन मया कर्तृभूतेन पंचास्तिकायशास्त्रमिदं व्याख्यातं । किं लक्षणं पंचास्तिकायषड्ट्रॅव्यादिसंक्षेपेण व्याख्यानेन समस्तवस्तुप्रकाशत्वात् द्वादशांगस्यापि प्रवचनस्य सारभूतमिति भावार्थः ।। १७३।। इति ग्रंथसमाप्तिरूपेण द्वादशस्थले गाथा गता। एवं तृतीयमहाधिकारः समाप्तः ।।

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