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पंचास्तिकाय प्राभृत
४१३ लभंत षदकालनियमो नास्ति । अयमत्र भावार्थः "आदा ख मज्झ णाणे आदा में दंसणे चरिते य । आदा पञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे" एवं प्रभृत्यागमसारादर्थपदानामभेदरत्नत्रयप्रतिपादकानामनुकूलं यत्र व्याख्यानं क्रियते तदध्यात्मशास्त्रं भण्यते तदाश्रिताः षटकाला पूर्व संक्षेपण व्याख्याता: वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्रव्यादिसम्यक्श्रद्धानव्रताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्रं भण्यते, तच्चाभेदरत्नत्रयात्मकस्याध्यात्मानुष्ठानस्य बहिरंगसाधनं भवति तदाश्रिता अपि षटकाला: संक्षेपेण व्याख्याताः, विशेषेण पुनरुभयत्रापि वकालव्याख्यानं पूर्वाचार्यकथितक्रमेणान्यग्रंथेषु ज्ञातव्यं ।।
इति श्री जयसेनाचार्य-कृतायां तात्पर्यवृत्ती प्रथमतस्तावदेकादशोत्तरशतगाथाभिरष्टभिरंतराधिकारैः पंचास्तिकायषद्रव्यप्रतिपादकनामा प्रथममहाधिकारः, तदनंतरं पंचाशद्गाथाभिर्दशभिरंतराधिकारैर्नवपदार्थप्रतिपादकाभिधानो द्वितीयो महाधिकारः, तदनंतरं विंशतिगाथाभादशस्थलैक्षिस्वरूपमोक्षमार्गप्रतिपादकाभिधानस्तृतीयमहाधिकारश्चेत्यधिकारत्र्यसमुदायेनैकाशीत्युत्तरशतगाथाभिः पंचास्तिकायप्राभृतः समाप्त: ।। विक्रमसंवत् १३६९ वषैराश्विनशुद्धिः १ भौमदिने ।
समाप्तेयं तात्पर्यवृत्तिः पंचास्तिकायस्य । अब यहाँ वृत्तिकार कहते हैं कि यह पंचास्तिकाय प्राभृतग्रन्थ संक्षेप रुचिधारी शिष्यको समझानेके लिये कहा गया है। जिस समय जो शिक्षा ग्रहण करता है उस समय उसको शिष्य कहते हैं इसलिये शिष्यका लक्षण कहने के प्रयोजनसे परमात्माके आराधन करनेवाले पुरुषोंकी दीक्षा या शिक्षाकी अवस्थाके भेद कहते हैं । दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषणकाल, आत्मसंस्कारकाल, सल्लेखनाकाल, उत्तमार्थकाल इस तरह छः प्रकारके काल होते हैं उन्हींको कहते हैं
१-जिस समय कोई भी निकट भव्यजीव निश्चय व व्यवहार रत्नत्रयके धारी आचार्य के पास जाकर आराधनाके लिये बाहरी व भीतरी परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है।
२-दीक्षाके बाद निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके तथा परमात्म-स्वरूपके विशेष ज्ञानके लिये उनके समझानेवाले अध्यात्म- शास्त्रोंकी जब शिक्षा ग्रहण करता है यह शिक्षा काल
३-शिक्षाके बाद निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गमें ठहरकर मोक्षमार्गके अर्थी भव्य प्राणियोंको जब परमात्म-तत्त्वका उपदेश देकर पुष्ट करता है तब गणपोषणकाल है।
४-गणपोषणके बाद जब अपने गण या संघको त्यागकर अपने परमात्म स्वभावमें शुद्ध संस्कार करता है अर्थात् स्वभावमें रमण करता है वह आत्मसंस्कार काल है!