Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 418
________________ ४२४ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका ५-आत्मसंस्कारके बाद उसीके लिये क्रोध आदि कषायोंसे रहित व अनन्तज्ञान आदि लक्षण सहित परमात्म पदार्थमें ठहरकर रागादि भावोंको भले प्रकार कम करनेवाली भाव सल्लेखना है इसीलिये कायको क्लेश देकर कायको कृश करना सो द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनोंके आचरणका जो काल है वह सल्लेखना काल है। ६-सल्लेखनाके बाद विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप आत्मद्रव्यका भलेप्रकार श्रद्धान, ज्ञान तथा उसी में आचरण व बाहरी द्रव्योंमें इच्छाका निरोध रूप तपश्चरण इसप्रकार चार तरहकी आराधना करना सो चरमशरीरीके उसी भवसे मोक्षके लिये है तथा जो चरमशरीरी नहीं है उसके अन्यभवमें मोक्षकी योग्यताके लिये है सो उत्तमार्थ काल है। इन छ: कालोंके मध्यमें कोई पहले कालमें, कोई दूसरे कालमें, कोई तीसरे काल आदिमें केवलज्ञानको उत्पन्न कर लेते हैं। छहों कालोंके होनेका नियम नहीं है। अथवा ध्यानके आठ अंग हैं"ध्याता ध्यानं फलं ध्येयं यत्र यस्य यदा यथा । इत्यष्टांगानि योगानां साधनानि भवंति च ।। अर्थात् ध्यान करनेवाला, ध्यान, ध्यानका फल, पिसका ध्यान किया जाये, कहाँ ध्यान करना, कब ध्यान करना, किस विधिसे ध्यान करना तथा यस्यका अर्थ आसन समझमें आता है। विशेष ज्ञानी सुधार लें । इसका संक्षेप व्याख्यान यह है गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितं । एकाग्रचिंतनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरे ।। अर्थात् इन्द्रिय और मनको वश रखनेवाला ध्याता होता है। वस्तुका यथार्थ स्वरूप ध्यान करने योग्य है, एकको मुख्य करके चिन्तवन करना ध्यान है, ध्यानका फल कोका संवर होना तथा निर्जरा होना है। इत्यादि कथन तत्त्वानुशासन नामके ध्यान ग्रन्थमें कहा गया है। वहाँ जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदके तीन प्रकार ध्याता व तीन ही प्रकार ध्यान कहा गया है। इसका भी कारण वही कहा है कि ध्यान करनेकी सामग्री जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है सो भी तीन प्रकार है । अथवा अति संक्षेपसे ध्यान करनेवाले दो प्रकारके होते हैं-एक तो शुद्ध आत्माकी भावनाको प्रारंभ करनेवाले सूक्ष्म विकल्प सहित अवस्थामें रहनेवाले प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं । दूसरे विकल्प रहित शुद्ध आत्माकी अवस्थामें रहनेवाले निष्पन्न योगी होते हैं। इस तरह संक्षेपसे अध्यात्मभाषासे ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानके फल जानने चाहिये । वे फल संवर तथा निर्जरासे साधे जानेवाले रागादि विकल्प रहित परमानन्दमय सुखकी वृद्धि होना

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