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मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका भावार्थ-जो शास्त्रका ज्ञाता होता है उसको छः लाभ होते हैं- (१) आत्महितमें श्रद्धा जमती है (२) आश्रव भावका संवर होता है (३) नवीन-नवीन धर्मानुरोग बढ़ता है (४) कंपरहित परिणाम होता है (५) तप साधनकी भावना होती है (६) परको उपदेश दे सकता है।
३-मूलगुण व उत्तरगुणोंके पालनके सम्बन्धमें भयरहित वर्तन करना सो सत्त्वभावना है । इसका फल यह है कि घोर उपसर्ग व परीषहके पड़नेपर भी निर्भय होकर उत्साह पूर्वक मोक्षका साधन पांडवों आदिकी तरह होता है ।
४-अपने आत्माको एक रूप अकेला विचार करना सो एकत्वभावना है जैसा इस गाथामें कहा हैएगो में सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।
भावार्थ-मेरा आत्मा एक अकेला, अविनाशी, ज्ञानदर्शन लक्षणका धारी है । इसके सिवाय जितने सर्व भाव परके संयोगसे होते हैं वे मुझसे बाहरके भाव हैं।
इस एकत्वभावनाका फल यह है कि स्वजन तथा परजनोंमें मोह न रहे, जैसा कहा
भगिनीं विडंबमानां यथा विलोक्यैकभावनाचतुरः । जिनकल्पितो न मूढः क्षपकोपि तथा न मुहोत् ।
भावार्थ--जो एकत्व भावनामें चतुर होता है वह अपने बहिनकी विडंबनाको देखकर भी मोह नहीं करता है वैसे जिनकल्पी साधु भी मोह नहीं करता है।
५-मान तथा अपमानमें समताभावके बलसे भोजनपान आदिमें जो कुछ लाभ हो उसमें संतोष रखना सो संतोषभावना है। इसका फल यह है कि रागादिक उपाधिसे रहित परमानंदमय आत्मिक सुख में तृप्ति पानेसे निदान बंध आदि विषयोंके सुखसे चित्तका हट जाना।
४-गणपोषणके पीछे आत्माकी भावनाके संस्कारको चाहनेवाला अपने गणको छोड़कर दूसरे गण या मुनिसंघमें जाकर रहता है सो आत्मसंस्कार काल है ।
५-आत्मसंस्कारके पीछे आचार आराधना ग्रन्थमें कहे प्रमाण द्रव्य तथा भाव सल्लेखना करता है व सल्लेखनाकाल है।
६-सल्लेखनाके पीछे चार प्रकार आराधनाकी भावनाके द्वारा समाधिकी विधिसे कालको पूर्ण करता है सो उत्तमार्थकाल है।