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पंचालिकाय मामृत व निर्विकार स्वसंधेदन ज्ञानकी उन्नति होना व बुद्धि आदि सात प्रकार ऋद्धियोंकी प्राप्ति होना है। ___अन्य ग्रन्थोंमें भी ध्याताके तीन प्रकार बताए हैं । जैसे शिष्य प्रारम्भकर्ता, अभ्यासकर्ता व निष्पन्नयोगी, उनका भी वर्णन इसी कथनमें यथासंभव अन्तर्भूत जानना चाहिये। अब आगमकी भाषासे छः काल कहे जाते हैं
१-जब कोई सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि चार प्रकार आराधनाके सन्मुख होकर पंच आचारके पालक आचार्यके पास जाकर अंतरंग बहिरंग परिग्रहको छोड़कर जिन दीक्षा लेता है वह दीक्षाकाल है।
२-दीक्षाके बाद चार प्रकार आराधनाके विशेष ज्ञान करनेके लिये व आचरणकी आराधनाके लिये चारित्रके सहायक ग्रन्थोंकी जब शिक्षा लेता है तब शिक्षाकाल है।
३-शिक्षाके बाद आचरणके सहकारी कथनके अनुसार स्वयं पाल करके व उसका व्याख्यान करके पाँच प्रकारकी भावना सहित होकर जब शिष्यगणोंको पुष्ट करता है तब गणपोषणकाल है।
भावनाएँ पाँच तरहकी होती हैं--तप, श्रुत, सत्त्व, एकत्व और संतोष ।
१-अनशन आदि बारह प्रकार निर्मल तप करना सो तपो भावना है-इस भावनाके फलसे विषय तथा कषायका विजय होता है ।
२-प्रथमानुयोग, चरणामुयोग, करणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग इन चार प्रकारके आगमका अभ्यास करना सो श्रुतभावना है। त्रिशठशलाका पुरुषोंके पुराणोंका व्याख्यान सोप्रथमानुयोग है, उपासकाध्ययन व आचार आराधना आदिके ग्रन्थोंके द्वारा देशचारित्र व सकलचारित्रका व्याख्यान सो चरणानुयोग कहा जाता है, जिनांतर, त्रिलोकसार लोक विभाग आदिके द्वारा लोकका कथन करना सो करणानुयोग है, प्राभृत अर्थात् समयप्राभृत आदि व तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धांत ग्रन्थोंके द्वारा जीवादि छः द्रव्योंका व सप्ततत्त्वादिका व्याख्यान करना द्रष्यानुयोग है । इस शास्त्रको भावनाक्रा फल यह कि जीवादि तत्त्वोंके सम्बन्धमें या हेय या उपादेय तत्त्वके सम्बंधमें संशय, विमोह, विभ्रम रहित निश्चल परिणाम होता है। इस शास्त्रकी भावनाका फल अन्य ग्रन्थमें कहा है । आत्महितास्था भावस्य संवरो नवनवश्च संवेगः। नि:कंपता तपोभावना परस्योपदेशनं ज्ञातुः ।।