Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 421
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत यहाँ भी कोई प्रथमकाल आदिमें ही चार प्रकार आराधनाको प्राप्त कर लेते हैं छः कालका नियम नहीं है / यहाँ यह भावार्थ है कि नीचे लिखी गाथाके प्रमाण जहाँ आगमका सार लेकर निश्चय रलत्रयकी भावनाके अनुकूल अर्थ व पदोंसे व्याख्यान किया जाता है वह अध्यात्मशास्त्र कहा जाता हैआदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिने य / आदा पच्चक्खाणे आदा मे संकरे जोगे / / भार--मेरे जान मात्ण है-मेरे टर्णन व चारित्रमें आत्मा है, प्रत्याख्यान तथा त्यागमें भी आत्मा है-अर्थात् जहाँ आत्मामें स्थिति है वहाँ ये सबकुछ हैं / __ अध्यात्मशास्त्रके आश्रित छः कालोंका वर्णन पहले ही संक्षेपसे किया गया है। जहाँ वीतराग सर्वज्ञद्वारा कहे हुए छः द्रव्य आदिका भलेप्रकार श्रद्धान, ज्ञान व आचरणरूप भेद या व्यवहार रत्नत्रयका स्वरूप वर्णन किया जाय बह आगमशास्त्र कहलाता है / यह कथन निश्चय रत्नत्रयमयी आध्यात्मिक आचरणका बाहरी साधन होता है-इसके आश्रित भी छ: काल संक्षेप से कहे गए / विशेष जानना हो तो छः कालोंका व्याख्यान दोनों ही आगम व अध्यात्मरूपसे पूर्व आचार्योके कहे हुए क्रमानुसार अन्य ग्रन्थोंसे जानना योग्य है / इस तरह श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिमें पहले एकसे एकसौ ग्यारह गाथाओंके द्वारा आठ अन्तर अधिकारोंसे पाँच अस्तिकाय व छः द्रव्यको कहनेवाला प्रथम महाअधिकार कहा गया / उसके बाद पचास गाथाओंके द्वारा दश अन्तर अधिकरोंसे नव पदार्थोको कहनेवाला दूसरा महाअधिकार कहा गया / फिर बीस गाथाओंके द्वारा बारह स्थलोंसे मोक्षस्वरूप व मोक्षमार्गको कहनेवाला तीसरा महाअधिकार कहा गया / इस तरह तीन अधिकारोंसे एक सौ इक्यासी गाथाओंमें पंचास्तिकाय प्राभृत समाप्त हुआ / समय व्याख्यामें 173 ही गाथाएँ हैं।

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