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पंचास्तिकाय प्रात
४०२ पूजा आदि क्रियाका खण्डन करते हैं वे निश्चय तथा व्यवहार दोनों मार्गोसे भ्रष्ट होते हुए निश्चय तथा व्यवहार आचरणके योग्य अवस्थासे जो भिन्न कोई अवस्था उसको न जानते हुए पापको ही बाँधते हैं तथा जो शुद्धात्माके अनुभवरूप निश्चय मोक्षमार्गको तथा उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्गको मानते हैं। परन्तु चारित्रमोहके उदयसे शक्ति न होनेपर यद्यपि शुभ व अशुभ चारित्रसे शुद्धात्माकी भावनाकी अपेक्षा सहित शुद्ध चारित्रको पालनेवाले पुरुषोंके समान नहीं होते हैं तथापि सरागसम्यक्त्व आदिको लेकर दान, पूजा आदि व्यवहारमें रत ऐसे सम्यग्दृष्टि होते हैं वे परम्परासे मोक्षको पा लेते हैं। इस तरह निश्चयके एकांतका खंडन करते हुए दो वाक्य कहे, इससे यह सिद्ध हुआ कि निश्चय तथा व्यवहार परस्पर साध्य साधक रूपसे माननेयोग्य हैं । इसीके द्वारा रागादि विकल्परहित परमसमाधिके बलसे ही मोक्षको ज्ञानी जीव पाते हैं । । १७२।।
इस तरह शास्त्रके तात्पर्यको संकोच करते हुए वाक्य कहा । इस तरह पाँच वाक्योंसे कहे हुए भावके विवरणकी मुख्यतासे ग्यारहवें स्थलमें गाथा कही।
कर्तुः प्रतिज्ञानिव्र्वृढिसूचिका समापनेयम् । मग्ग-प्पभाव- णटुं पवयण- भत्ति-प्पचोदि-देण मया। भणियं पवयणसारं पंचत्थिय-संगहं सुत्तं ।।१७३।।
मार्गप्रभावनार्थं प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया ।
भणितं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकसंग्रहं सूत्रम् ।। १७३।। मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा, तस्याः प्रभावनं प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम, तदर्थमेव परमागमानुरागप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकार: प्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते ।।१७३।। इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो
द्वितीयः श्रुतस्कंधः समाप्तः ।। स्वशक्तिसंचितवस्तुतत्त्वैव्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।।८।। इति पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानस्य समयस्य व्याख्या समाप्ता ।।