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मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( तम्हा ) इसलिये ( णिव्वुदिकामो) इच्छा रहित होकर जो ( सव्वस्थ ) सर्व पदार्थोंमें ( किंचि ) कुछ भी ( रागं) राग ( मा कुणदि) नहीं करता है ( सो भवियो) वह भव्य जीव ( तण) इसी कारणसे ( वीतरागो) वीतराग होता हुआ ( भवसायरं) संसारसमुद्रको (तरदि) तर जाता है।
विशेषार्थ-क्योंकि इस शास्त्रमें मोक्षमार्गके व्याख्यानके सम्बन्धमें मोक्षका मार्ग उपाधि रहित चैतन्यके प्रकाशरूप वीतरागभावको ही दिखलाया है इसलिये केवलज्ञान आदि अनन्तगुणोंकी प्रगटता रूप कार्य समयसारसे कहने योग्य मोक्षका चाहनेवाला भव्यजीव अरहंत आदिमें भी स्वानुभवरूप राग भाव न करे-इस राग रहित चैतन्य ज्योतिमय भावसे वीतरागी होकर वह प्राणी संसारसागरको पार करके अनंतज्ञानादि गुण रूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है। यह संसार-सागर अजर-अमर पदसे विपरीत है, जन्म, जरा, मरण आदि रूप नानाप्रकार जलचर जीवोंसे भरा हुआ है, वीतराग परमानन्दमय एक सुख-रसके आस्वादको रोकनेवाले नारकादि दुःख रूप खारे जलसे पूर्ण है, रागादि विकल्पोंसे रहित परम समाधिके नाश करनेवाले पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छा आदिको लेकर सर्व शुभ तथा अशुभ विकल्प जाल रूप तरंगोंकी मालासे भरपूर है, व जिसके भीतर आकुलता रहित परमार्थ सुखसे आकुलताको पैदा करनेवाली नानाप्रकार मानसिक दुःखरूप वडवानलकी शिखा जल रही है।
इस तरह पहले कहे प्रकारसे इस प्राभृतशास्त्रका तात्पर्य वीतरागताको ही जानना चाहिये । वह वीतरागता निश्चय तथा व्यवहारनयसे साध्य व साधक रूपसे परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षासे ही होती है-बिना अपेक्षाके एकान्तसे मुक्तिकी सिद्धि नहीं हो सकती है । जिसका भाव यह है कि जो कोई विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावमय शुद्ध आत्मतत्त्वके भले प्रकार श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र रूप निश्चय मोक्षमार्गकी अपेक्षा बिना केवल शुभ चारित्ररूर व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मान बैठते हैं वे इस भावसे मात्र देवलोक आदिके क्लेशको भोगते हुए परम्परासे इस संसारमें भ्रमण करते रहते हैं, परन्तु जो ऐसा मानते हैं कि शुद्धात्मानुभूति रूप मोक्षमार्ग है तथा जब उनमें निश्चय मोक्षमार्गके आचरणकी शक्ति नहीं होती है तब निश्चयके साधक शुभ चारित्रको पालते हैं तब वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं फिर वे परम्परासे मोक्षको पाते हैं। इस तरह व्यवहारके एकांत पक्षको खण्डन करनेकी मुख्यतासे दो वाक्य कहे गए तथा जो एकांतसे निश्चयनयका आलंबन लेते हुए रागादि विकल्पोंसे रहित परम समाथिरूप शुद्धात्माका लाभ न पाते हुए भी तपस्वीके आचरणके योग्य सामायिकादि छः आवश्यक क्रियाके पालनका व श्रावकके आचरणके योग्य दान,