Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 410
________________ ४०६ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिया ( अब केवलनिश्चयावलम्बी ( अज्ञानी ) जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है-) अब, जो केवलनिश्चयावलम्बी हैं, सकल क्रियाकर्मकाण्डके आडम्बरमें विरक्त बुद्धिवाले वर्तते हुए, आँखोंको अधमुँदा रखकर कुछ भी स्वबुद्धिसे अवलोककर यथासुख रहते हैं ( अर्थात् स्वमतिकल्पनासे कुछ भी कल्पना करके इच्छानुसार-जैसे सुख उत्पन्न हो वैसेरहते हैं ), वे वास्तवमें भिन्नसाध्यसाधनभावको तिरस्कारते हुए अभिनसाध्यसाधनभावको उपलब्ध न करते हुए, अंतरालमें ही ( -शुभ तथा शुद्धके अतिरिक्त शेष तीसरी अशुभदशामे ही), प्रमादमदिराके मदसे भरे हुए आलसी चित्तवाले वर्तते हुए, मत्त ( उन्मत्त ) जैसे, मूछित जैसे, सुषप्त जैसे, बहुत घी-शक्कर-खीर खाकर तृप्तिको प्राप्त हुए ( -तृप्त हुए ) हों, ऐसे, मोटे शरीरके कारण जडता ( -मंदता, निष्क्रियता ) उत्पन्न हुई हो ऐसे, दारुण बुद्धिभ्रंशसे मूढता हो गई हो ऐसे, जिसका विशिष्टचैतन्य मुँद गया है ऐसी वनस्पति जैसे, मुनीन्द्रकी कर्मचेतनाको पुण्यबंधके भयसे न अवलम्बते हुए और परम नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतनामें विश्रान्तिको प्राप्त न होते हुए ( मात्र ) व्यक्त-अव्यक्त प्रमादके आधीन वर्तते हुए, प्राप्त हुए हलके ( निकृष्ट ) कर्मफलकी चेतनाके प्रधानपनेवाली प्रवृत्ति जिसके वर्तती है ऐसी वनस्पतिकी भाँति, केवल पापको ही बाँधते हैं। कहा भी है कि-"णिच्छयमालम्ब्रता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई" निश्चयका अवलम्बन लेनेवाले परन्तु निश्चयसे ( वास्तवमें) निश्चयको न जाननेवाले कुछ जीव बाह्य चरणमें आलसी होते हुए चरणपरिणामका नाश करते हैं। ( अब निश्चय-व्यवहार दोनोंका सुमेल रहे, इस प्रकार भूमिकानुसार प्रवर्तन करनेवाले ज्ञानी जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है-) परन्तु जो, अपुनर्भवके ( मोक्षके ) लिये नित्य उद्योग करनेवाले महाभाग भगवन्त, निश्चय व्यवहारमेंसे किसी एकका ही अवलम्बन न लेनेसे ( -केवलनिश्चयावलम्बी या केवलव्यवहारावलम्बी न होनेसे ) अत्यन्त मध्यस्थ होते हुए, शुद्धचैतन्यरूप आत्मतत्त्वमें विश्रान्तिके विरचनकी ओर अभिमुख ( उन्मुख ) होते हुए, प्रमादके उदयका अनुसरण करती हुई वृत्तिका निवर्तन करनेवाली ( टालनेवाली ) क्रियाकाण्डपरिणतिको माहात्म्यसे वारते हुए अत्यन्त उदासीन रहते हुए, यथाशक्ति आत्माको आत्मासे आत्मामें संचेतते ( अनुभवते ) हुए नित्य-उपयुक्त रहते हैं वे ( -वे महाभाग भगवन्त ) वास्तवमें स्वतत्त्वमें विश्रान्तिके अनुसार क्रमशः कर्मका संन्यास करते हुए ( छोड़ते हुए ), अत्यन्त निष्प्रमाद रहते हुए, अत्यन्त निष्कंपमूर्ति होनेसे जिन्हें वनस्पतिकी उपमा दी जाती है तथापि जिन्होंने कर्मफलानुभूति अत्यन्त निरस्त ( नष्ट ) की है ऐसे, कर्मानुभूतिके प्रति निरुत्सुक वर्तते हुए, केवल ज्ञानानुभूतिसे उत्पन्न हुए तात्त्विक आनन्दसे अत्यन्त भरपूर रहते हुए, शीघ्र संसारसमुद्रको पारकर, शब्दब्रह्मके शाश्वत फलके ( -निर्वाणसुखके ) भोक्ता होते हैं ।।१७२॥

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