Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 408
________________ ४०४ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका तात्पर्य दो प्रकारका होता है-सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । उसमें सूत्रतात्पर्य, प्रत्येकसूत्रमें (प्रत्येकगाथामें ) प्रतिपादित किया गया है, और शास्त्रतात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता हैं सर्व पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्त्वका प्रतिपादन करनेके हेतुसे जिसमें पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तुका स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थोके विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बंध-मोक्षके सम्बन्धी स्वामी ] बंध-मोक्षके आयतन [ स्थान ] और बंध-मोक्षके विकल्प [ भेद ] प्रगट किये गये हैं, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गका जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है तथा साक्षात् मोक्षके कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस यथार्थ पारगेश्वर शास्त्रका, परमार्थसे वीतरागपना ही तात्पर्य है। सो इस वीतरागपनेका व्यवहार-निश्चयके अविरोध द्वारा ही अनुसरण किया जाये तो इष्टसिद्धि होती है, परन्तु अन्य प्रकार नहीं । ( उपरोक्त बात विशेष समझाई जाती है-) अनादि कालसे भेदवासित बुद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीत्र व्यवहारनयसे भिन्नसाध्यसाधनभावका अवलम्बन लेकर सुखसे । सुगमरूपसे ) तीर्थम-मोक्षमार्ग अवतरण करते हैं। जैसे कि-"(१) यह श्रद्धेय ( श्रद्धा करनेयोग्य ) है, (२) यह अश्रद्धेय है, (३) यह श्रद्धा करनेवाला है और (४) यह श्रद्धान है, (१) यह ज्ञेय ( जाननेयोग्य ) है, (२) यह अज्ञेय है [३] यह ज्ञाता है और (४) यह ज्ञान है, (१) यह आचरणीय [ आचरण करनेयोग्य ] हैं, (२) यह अनाचरणीय है, (३) यह आचरण करनेवाला है और (४) यह आचरण हैं,'– इस प्रकार [१] कर्तव्य ( करनेयोग्य ) है, (२) अकर्तव्य है, (३) कर्ता है और (४) कर्म है, इस प्रकार विभागोंके अवलोकन द्वारा जिनमें सुन्दर उत्साह उल्लसित होता जाता है ऐसे वे [प्राथमिक जीव ] धीरे-धीरे मोहमल्लको ( रागादिको ) उखाड़ते जाते हैं, कदाचित् अज्ञानके कारण ( पूर्ण ज्ञानके अभावके कारण ) मद [ कषाय ] और प्रमादके वश होनेसे अपना आत्मअधिकार ( आत्मामें अधिकार ) शिथिल हो जानेसे [ अतीचार लग जानेसे ] अपने न्यायमार्गमें प्रवर्तित करने के लिये वे प्रचंड दंडनीतिका [ प्रायश्चित्त विधिका ] प्रयोग करते हैं, पुनः-पुन: [अपने आत्माको ] दोषानुसार प्रायश्चित्त देते हुए वे सतत उद्यमवंत वर्तते हैं, और भिन्नविषयवाले श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र द्वारा ( -ऐसे भेदरत्नत्रय द्वारा ) जिसमें संस्कार आरोपित होते जाते हैं ऐसे भिन्नसाध्यसाधनभाववाले अपने आत्मामें-धोबी द्वारा शिलाकी सतहपर पछाड़े जानेवाले, निर्मल जल द्वारा भिगोये जानेवाले और क्षार [ साबुन ] लगाये गये मलिन वस्त्रको भाँति-अल्पअल्प विशुद्धि ( निर्मलता ) प्राप्त करके, उसी अपने आत्माको निश्चयनयको भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण, दर्शनज्ञानचारित्रका समाहितपना ( अभेदपना ) जिसका रूप है क्रियाकाण्डके आडम्बरको निवृत्तिके कारण ( -अभावके कारण ) जो निस्तरंग परमचैतन्यशाली है तथा जो निर्भर आनन्दसे समृद्ध है ऐसे भगवान आत्मामें विश्रांति रचते हुए ( स्थिरता करते हुए )

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