Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 393
________________ ३८९ पंचास्तिकाय प्राभृत कारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव भवन्ति । ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्नमिति ।। १६४।। अन्वयार्थ-( दर्शनज्ञानचारित्राणि ) दर्शन-ज्ञान-चारित्र ( मोक्षमार्ग: ) मोक्षमार्ग है ( इति ) इसलिये ( सेवितव्यानि ) वे सेवनयोग्य हैं- ( इदम् साधुभिः भणितम् ) ऐसा साधुओंने कहा है, (तै: तु) परन्तु उनसे ( बंधः वा ) बंध भी होता है । ( मोक्षः वा ) मोक्ष भी होता है। टीका-यहाँ, दर्शन ज्ञान चारित्रका कंथचित् बंधहेतुपना दिखाने से जीवस्वभावमें नियत चारित्रका साक्षात् मोक्षहेतुपना प्रकाशित किया है। __यह दर्शन-जान-चारित्र, यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्तिके साथ मिलित हों तो, अग्निके साथ मिलित घृतकी भाँति, कथंचित् विरुद्ध कार्यके कारणपनेकी व्याप्तिके कारण बंधकारण भी हैं। और जब ( वे दर्शन-ज्ञान-चारित्र ), समस्त परसमयप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप स्वसमयप्रवृत्तिके साथ संयुक्त होते हैं तब, अग्निके मिलापसे निवृत्त घृतकी भाँति, विरुद्ध कार्यके कारणभाव का अभाव होनेसे साक्षात् मोक्षकेकारण ही हैं । इसलिये 'स्वसमयप्रवृत्ति' नामका जो जीवस्वभावमें नियत चारित्र उसको साक्षात् मोक्षमार्गपना घटित होता है ।।१६४।। संता--अथ दर्शनज्ञानचारित्रैः पराश्रितैर्बन्धः स्वाश्रितैमोक्षो भवतीति समर्थयतीति,दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोत्ति सेविदव्वाणि-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गों भवतीति हेतोः सेवितव्यानि । इदं कैरुपदिष्टं । साधूहि य इदि भणिदं-साधुभिरिदं भणितं कथितं । तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा-तैस्तु पराश्रितैर्बधः स्वाश्रित्तैमोक्षो वेति विशेषः । शुद्धात्माश्रितानि सम्यग्दर्शनचारित्राणि मोक्षकारणानि भवन्ति पराश्रितानि बंधकारणानि भवन्ति च। केन दृष्टान्तेनेति चेत् ! यथा घृतानि स्वभावेन शीतलान्यपि पश्चादग्निसंयोगेन दाहकारणानि भवति तथा तान्यपि स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पंचपरमेष्ठ्यादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबंधकारणानि भवन्ति मिथ्यात्वविषयकषायनिमित्तभूतपरद्रव्याश्रितानि पुनः पापबंधकारणान्यपि भवन्ति । तस्माद् ज्ञायते जीवस्वभावनियतचरितं मोक्षमार्गः, इति ॥१६४॥ एवं शुद्धाशुद्धरत्नत्रयाभ्यां यथाक्रमेण मोक्षपुण्यबन्धौ भवत इति कथनरूपेण गाथा गता। हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे यह समर्थन करते हैं कि श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र यदि परद्रव्यके आश्रय सेवन किये जायें तो उनसे बंध होता है, वे ही यदि आत्माके आश्रित सेवन किये जावें तो उनसे मोक्ष का लाभ होता है। अन्वय सहित सामान्यार्थ-[दसणणाणचरित्ताणि ] दर्शन, ज्ञान, चारित्र ( मोक्खमग्गोत्ति ) मोक्षमार्ग है वे ही [ सेविदव्याणि] सेवन योग्य हैं [ साधूहि ] साधुओंने [ इदं भणिदं ] ऐसा कहा है । [ तेहिं दु] इन्हीसे [बंधो व] कर्मबंध [ वा ] या [ मोक्खो ] मोक्ष होता है।

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