Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 403
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३९९ विशेषार्थ- जो बाहरी इंद्रिय संयम तथा प्राणियोंकी रक्षा रूप प्राणि संयमके बलसे रागादि उपाधि से रहित है, तथा अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लाभ व उसके मनोरथ रूप विकल्पोंके जालकी अग्निके बिना निर्विकल्प चित्त करके संयमके लिये अपने शुद्ध आत्मामें ठहरनेके लिये संयमी मुनि हो गया है व अनशन आदिको लेकर अनेक प्रकार बाहरी तपश्चरणके बलसे व सर्व परद्रव्यकी इच्छाको रोकने रूप आभ्यंतर तपके द्वारा नित्य आनन्दमय एक स्वभावमें तप करता है तप करते हुए भी जब विशेष संहनन आदि शक्तिके अभावसे निरंतर अपने स्वरूपमें ठहर नहीं सकता है तब कभी तो शुद्ध आत्माकी भावनाके अनुकूल जीवादि पदार्थोंके बतानेवाले आगमसे प्रेम करता है, कभी जैसे रामचंद आदि पुरुष देशान्तर में गई हुई सीता आदि स्त्रीके निकटसे आए हुए पुरुषोंका दान, सन्मान आदि उस अपनी स्त्रीके प्रेमसे करते हैं वैसे मुक्तिरूपी स्त्रीके वश करनेके लिये निर्दोष परमात्मा तीर्थंकर परम देवोंके तथा गणधरदेव व भरत, सागर, राम, पांडवादि महापुरुषोंके चारित्र पुराणादि अशुभ रागसे बचने व शुभ धर्ममें अनुराग भावसे सुनता है तथा गृहस्थ अवस्थामें निश्चय व्यवहार रत्नत्रयकी भावनायें रत आचार्य, उपाध्याय, साधु आदिकोंकी दान, पूजादि करता है । इस कारणसे यद्यपि अनंत संसारकी स्थितिको छेद डालता है तथा यदि चरमशरीरी नहीं है तो उसी जन्मसे सब कर्मोंका क्षय नहीं कर सकता है तथापि पुण्यके अस्त्रवके परिणामसहित होनेसे उस भवसे निर्वाणको न पाकर अन्य भवमें देवेन्द्रादि पद पाता है वहाँ भी विमान परिवार आदि विभूतिको तृणके समान गिनता हुआ पाँच महाविदेहों में जाकर समवशरण में वीतराग सर्वज्ञ अरहंत भगवानका दर्शन करता है तथा निर्दोष परमात्माके आराधक गणधर देवादिको नमस्कार करता है तब निर्दोष धर्ममें दृढ होकर चौथे गुणस्थानके योग्य आत्माकी भावनाको नहीं त्यागता हुआ देवलोकमें काल माता है फिर आयुके अन्तमें स्वर्गसे आकर मनुष्यभव में चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको पाता है तो भी पूर्वभवोंमें आयी हुई शुद्धात्मा की भावनाके बलसे उसमें मोह नहीं करता है। फिर विषयसुखको छोड़कर जिनदीक्षा ले लेता है व निर्विकल्प समाधिकी विधिसे विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप अपने शुद्ध आत्मामें ठहरकर मोक्षको पा लेता है यह भाव है ।। १७० ।। अर्हदादिभक्तिमात्ररागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् । अरहंत - सिद्ध- चेदिय पयण-भक्तो परेण णियमेण । जो कुणदि तवोकम्पं सो सुरलोगं समादिर्याद ।। १७१ । । अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः परेण नियमेन । यः करोति तपः कर्मस सुरलोकं समादत्ते ।। १७१ ।।

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