Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 401
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३९७ विशेषार्थ - अण्णाणादो णाणी' इत्यादि चार गाथाओंके द्वारा रागादि विकल्पजालको आस्रवका कारण बताया है इसलिये जो पुरुष मोक्षका अभिलाषी हो उसको परिग्रहरहित आत्मतत्त्वसे विपरीत बाहरी व भीतरी परिग्रहसे रहित होकर और रागादि उपाधिसे रहित चैतन्य प्रकाशमय आत्मतत्त्वसे विपरीत मोहके उदयसे उत्पन्न ममकार और अहंकाररूप विकल्पजालसे रहित होकर सिद्धोंके समान मेरे आत्माके अनंतगुण हैं ऐसा मानकर अपने शुद्ध आत्मिक गुणोंमें परमार्थ स्वसंवेदन रूप सिद्ध भक्ति करनी चाहिये । इसीसे शुद्धात्माकी प्राप्ति रूप निर्वाणका लाभ होता है ।।१६९ ।। अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भावद्योतनमेतत् । सपयत्थं तित्थयरं अभिगद - बुद्धिस्स सुत्त- रोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजम - तव - संपओत्तस्स ।। १७० ।। सपदार्थं तीर्थंकरमभिगतबुद्धेः सूत्ररोचिनः । दूरतरं निर्वाणं संयमतपः सम्प्रयुक्तस्य ।। १७० ।। यः खलु मोक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसंभावितपरमवैराग्यभूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदार्थैः सहार्हदादिरुचिरूपां परसमयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान्मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति ।। १७० ।। अन्वयार्थ- (संयमतपः सम्प्रयुक्तस्य ) संयमतपसंयुक्त होने पर भी, ( सपदार्थं तीर्थंकरम् ) नव पदार्थो तथा तीर्थंकरके प्रति ( अभिगतबुद्धः ) जिसकी बुद्धि का झुकाव वर्तना है और ( सूत्ररोचिनः ) सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि (प्रीति) वर्तती हैं, उस जीवको ( निर्वाणं ) निर्वाण ( दूरतरं ) दूरतर है। टीका --- यहाँ, अर्हतादिकी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्ति में साक्षात् मोक्षहेतुपनका अभाव होनेपर भी परम्परासे मोक्ष हेतुपनेका सद्भाव दर्शाया है । जो जीव वास्तवमें मोक्षके हेतुसे उद्यमी चित्तवाला वर्तता हुआ, अचिन्त्य संयमतपभार संप्राप्त किया होनेपर भी परमवैराग्यभूमिकाका आरोहण करनेमें समर्थ ऐसी प्रभुशक्ति उत्पन्न न की होनेसे, 'धुनकीको चिपकी हुई रूई के न्यायसे नव पदार्थों तथा अर्हतादिकी रुचिरूप ( प्रीतिरूप ) परसमयप्रवृत्तिका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तवमें साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता किन्तु देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिरूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता ॥ १७० ॥

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