Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 399
________________ F पंचास्तिकाय प्राभृत ३९५ यहाँ ( इस लोकमें) वास्तवमें अर्हतादि की भक्ति भी रागपरिणतिके बिना नहीं होती। रागादिपरिणति होनेसे आत्मा विकल्पों के से रहित आपको किसी प्रकार नहीं रख सकता, और विकल्पोंके प्रसार होनेपर शुभ तथा अशुभ कर्मका निरोध नहीं होता। इसलिये, यह अनर्थसंततिका मूल रागरूप क्लेशका विलास ही है ।। १६८ ।। सं०ता० - अथ सर्वानर्थपरंपराणां राग एव मूल इत्युपदिशति, धरिदुं धर्तुं जस्स- यस्य ण सक्को - न शक्यः कर्मतापत्रः, चित्तब्भामो - चित्तभ्रमः अथवा विचित्रभ्रमः आत्मनो भ्रान्तिः । कंथ ? विणा दु अप्पाणं - आत्मानं बिना निजशुद्धात्मभावनामंतरोग, रोधो तस्स ण विज्जदि-रोधः संवरः तस्य न विद्यते ? कस्य संबंधि | सुहासुहकदस्स कम्मस्स- शुभाशुभकृतस्य कर्मण इति । तद्यथा । योसौ नित्यानन्दैकस्वभावनिजात्मानं न भावयति तस्य मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयप्रभृति - समस्तविभावरूपो बुद्धिप्रसरो धर्तुं न याति निरोधाभावे च शुभाशुभकर्मणां संवरो नास्तीति । ततः स्थितं समस्तानर्थपरंपराणां रागादिविकल्पा एवं मूलमिति ॥ १६८ ॥ हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे सर्व अनर्थोकी परम्पराका राग ही मूल कारण है । ऐसा उपदेश करते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ - [ दु] तथा [ जस्स ] जिसका चित्तका भ्रम या चंचलभाव [ अप्पाणं विणा ] अपनी शुद्ध आत्माकी भावनाके बिना [ धरिदुं ण सक्कं ] रोका नहीं जा सकता है [ तस्स ] उसके [ सुहासुहकदस्स कम्यस्स ] शुभ तथा अशुभ उपयोगसे किये हुए कर्मोंका [ रोधो ] रुकना [ पण विज्जदि ] नहीं सम्भव है । विशेषार्थ जो कोई नित्य आनन्दमय एक स्वभावरूप अपने आत्माकी भावना नहीं कर सकता है वह माया, मिथ्या, निदान इन शल्यों आदिको लेकर सर्व विभावरूप बुद्धिके फैलावको रोक नहीं सकता है। इस बुद्धिके न रुकनेपर उसके शुभ तथा अशुभ कर्मोका संवर नहीं होता है । इससे सिद्ध हुआ कि सर्व अनर्थोकी परम्पराके मूल कारण राग आदि विकल्प ही हैं ।।१६८ ।। I रागकलिनिःशेषीकरणस्य करणीयत्वाख्यानमेतत् । तम्हा णिव्बुदिकामो णिस्संगो णिम्ममो य हविय पुणो । सिद्धेषु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि ।। १६९ ।। तस्मान्निवृत्तिकामो निस्सङ्गो निर्ममश्च भूत्वा पुनः । सिद्धेषु करोति भक्तिं निर्वाणं तेन प्राप्नोति ।। १६९ । । यतो रागाद्यनुवृत्तौ चित्तो भ्रान्ति:, चित्तोद्भ्रान्तौ कर्मबन्ध इत्युक्तम्, ततः खलु मोक्षार्थिना

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