Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 400
________________ ३९६ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका कर्मबन्धमूलचित्तोद्भ्रान्तिमूलभूता रागाधनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेषीकरणीया । निःशेषितायां तस्यां प्रसिद्धनैःसङ्ग्यनैर्मभ्यः शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकी सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति । तेन कारणेन स एवनिःशेषिराकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति ।।१६९।। अन्वयार्थ-( तस्मात् ) इसलिये ( निवृत्तिकाम: ) मोक्षार्थी जीव ( निस्सङ्गः ) नि:संग (च) और ( निर्ममः ) निर्मम ( भूत्वा पुनः ) होकर ( सिद्धेषु भक्तिं ) सिद्धोंकी भक्ति ( करोति ) करता है, ( तेन ) इसलिये वह ( निर्वाणं प्राप्नोति ) निर्वाणको प्राप्त करता है। टीक - यह साप दोषका नि:शेषनाश करनेयोग्य होनेका निरूपण है। रागादिपरिणति होनेसे चित्तका भ्रमण होता है और चित्तका भ्रमण होनेसे कर्मबंध होता है ऐसा ( पहले ) कहा गया, इसलिये मोक्षार्थीको कर्मबंधका मूल ऐसा जो चित्तका भ्रमण उसके मूलभूत रागादिपरिणतिका एकान्तसे नि:शेष नाश करनेयोग्य है । उसको निःशेष नाश किया जानेसे, जिसे नि:संगता और निर्ममता प्रसिद्ध हुई है ऐसा वह जीव शुद्धात्मद्रव्यमें विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति धारण करता हुआ स्वसमयप्रवृत्तिकी प्रसिद्धिवाला होता है । उस कारणसे वह जीव कर्मबंधका नि:शेष नाश करके सिद्धिको प्राप्त करता है ।।१६९।। ततस्तस्मान्मोक्षार्थिना पुरुषेण "ग्रहणरहितत्वानि:संगता' आस्रवकारणभूतं रागादिविकल्पजालं निर्मूलनायेति सूक्ष्मपरसमयव्याख्यानमुपसंहरति, तम्हा-तस्माच्चित्तगतरागादिविकल्पजालं 'अण्णाणादो णाणी'-त्यादि गाथाचतुष्टयेनास्रवकारणं भणितं तस्मत्त्कारणात् णिज्बुदिकामो-निवृत्यभिलाषी पुरुषः णिस्संगो—नि:संगात्मतत्त्वविपरीतबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेण रहितत्वानि:संगः । णिम्ममो.-- रागा-धुपाधिरहितचैतन्यप्रकाशलक्षणात्मतत्त्वविपरीतमोहोदयोत्पन्नेन ममकाराहंकारादिरूपविकल्पजालेन रहितत्वात् निमोहश्च निर्ममः, भविय-भूत्वा, पुणो-पुन: सिद्धेसु-सिद्धगुणसदृशानंतज्ञानात्मगुणेषु कुणदु-करोतु। कां। भत्ति---पारमार्थिकस्वसंवित्तिरूपां सिद्धभक्तिं । किंभवति ? तेण—तेन सिद्धभक्तिपरिणामेन शुद्धात्मोपलब्धिरूपं, णिव्याणं-निर्वाणं, पप्पोदि-प्राप्नोतीति भावार्थः ।।१६९।। एवं सूक्ष्मपरसमयव्याख्यानमुख्यत्वेन नवमस्थले गाथापंचकं गतं । हिन्दी ता०-उत्थानिका-मोक्षार्थी पुरुषको उचित है कि आस्रवके कारणभूत रागादि विकल्प जालको जड़मूलसे नाश करे इसीलिये आचार्य सूक्ष्मपरसमयके व्याख्यानको संकोच करते हैं:____ अन्वय सहित सामान्यार्थ-[ तम्हा] इसलिये [णिव्युदिकामो ] मोक्षका इच्छुक [णिस्संगो ] परिग्रहरहित होकर [य] और [णिम्ममो] ममतारहित होकर [ पुणो] फिर [सिद्धेसु] सिद्धोंमें [ भक्तिं ] भक्ति [कुणदि ] करता है । तेण] इसी रीतिसे वह [णिव्याण ] मोक्षको [पप्पोदि ] पाता है।

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