Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 397
________________ ३९३ पंचास्तिकाय प्राभृत हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे पूर्वमें कही हुई शुद्धात्माकी भक्तिसे पुण्यबंध होता है ऐसा दिखाकर उससे मुख्यतासे मोक्षका होना निषेध करते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्ति-संपण्णो) अरहंत भगवान, सिद्ध परमात्मा, उनकी प्रतिमा, जैनसिद्धांत, मुनिसमूह तथा ज्ञानकी भक्ति करनेवाला ( बहुशः ) अधिकतर ( पुण्णं) पुण्यकर्मको ( बंधदि) बाँधता है (दु) परन्तु (सो) वह (कम्पक्खयं ) कर्मोका क्षय (ण कुणदि) नहीं करता है। विशेषार्थ-यहाँ यह सूत्रका भाव है कि आस्रव रहित शुद्ध अपने आत्माके अनुभवसे मोक्ष होता है। इस कारण पर वस्तुके आश्रित भावसे मोक्षका निषेध है ।।१६६।। स्वसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत् । जस्स हिदयेणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो। सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि ।। १६७।। यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः । सन विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि ।।१६७।। यस्य खलु रागरेणुकणिकाऽपि जीवति हृदये, न नाम स समस्तसिद्धान्तसिन्धुपारगोऽपि निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते । ततः स्वसमयप्रसिद्ध्यर्थं पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायमयिदधताऽहंदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।।१६७।। अन्वयार्थ-( यस्य हृदये ) जिसके हृदयमें ( परद्रव्ये ) परद्रव्यके प्रति ( अणुमात्रः वा ) अणुमात्र भी ( लेशमात्र भी) [ रागः ] राग ( विद्यते ) वर्तता है ( सः ) वह, ( सर्वागमधर: अपि ) भले ही सर्व आगमधर हो तथापि, (स्वकस्य समयं न विजानाति ) स्वकीय समयको नहीं जानता ( -अनुभव नहीं करता ) ____टीका-वहाँ, स्वसमयकी उपलब्धिके अभावका, राग एक हेतु है ऐसा प्रकाशित किया जिसके हृदयमें रागरेणुकी कणिका भी जीवित है वह, भले ही समस्त सिद्धान्तसागरका पारंगत हो तथापि, निरुपराग-शुद्धस्वरूप स्वसमयको वास्तवमें नहीं चेतता [ अनुभव नहीं करता] इसलिये, धुनकीसे चिपकी हुई रूईको दूर करनेके न्यायको धारण करते हुए, जीवको स्वसमयकी प्रसिद्धिके हेतु अर्हतादिविषयक भी रागरेणु क्रमश: दूर करनेयोग्य है ।।१६७।। अथ शुद्धात्मोपलंभस्य परद्रव्य एव प्रतिबंध इति प्रज्ञापयति,–यस्य हृदये मनसि, अणुमेत्तं वा-परमाणुमात्रोपि परदव्वम्हि-शुभाशुभपरद्रव्ये हि-स्फुटं विज्जदे रागो-रागो विद्यते,

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