Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 395
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत तदनंतर सूक्ष्मपरसमयव्याख्यानसंबंधित्वेन गाथापंचकं भवति, तत्रैका सूत्रगाथा तस्य विवरणं गाथात्रयं ततश्चोपसंहारगाथैका चेति नवमस्थले समुदायपातनिका । अथ सूक्ष्मपरसमयस्वरूपं कथयति, अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि-शुद्धात्मपरिच्छित्तिविलक्षणादज्ञानात्सकाशात् ज्ञानी कर्ता यदि मन्यते । किं? हदि ति दुखमोक्खो-स्वस्वभावेनोत्पत्रसुखपतिकुलदुःखस्य मोनो विनाशो भवतीति । कस्मादिति तत् ? सुद्धसंपयोगादो-शुद्धेषु शुद्धबुद्धकस्वभावेषु शुद्धबुद्धैकस्वभावाराधकेषु वार्हदादिषु संप्रयोगो भक्तिः शुद्धसंप्रयोगस्तमात् शुद्धसंप्रयोगात् । तदा कथंभूतो भवति ? परसमयरदो हवदि-तदा काले परसमयरतो भवति । जीवोस पूर्वोक्तो ज्ञानी जीव इति । तद्यथा कश्चित्पुरुषो निर्विकारशुद्धात्मभावनालक्षणे परमोपेक्षासंयमे स्थातुमीहते तवाशक्तः सन् कामक्रोधायशुद्धपरिणामवंचनार्थ संसारस्थितिछेदनार्थं वा यदा पंचपरमेष्ठिषु गुणस्तवनादिभक्तिं करोति तदा सूक्ष्मपरसमयपरिणत: सन् सरागसम्यग्दृष्टिर्भवतीति, यदि पुनः शुद्धात्मभावनासमर्थोपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यावृष्टिर्भवति ततः स्थितं अज्ञानेन जीवो नश्यतीति । तथा चोक्तं । “कचिदज्ञानतो नष्टाः केचित्रष्टाः प्रमादतः । केचिज्ज्ञानावलेपेन केचित्रष्टैश्च नाशिताः' ।।१६५।। ___ पीठिका-इसके पीछे सूक्ष्म परसमयका व्याख्यान करनेको पाँच गाथाएँ हैं। उनमें एक गाथामें उसका सूत्ररूप कथन है फिर तीन गाथाओंमें उसका विस्तार है। फिर एक गाथामें इसीका संकोच कथन है। ऐसे नवमें स्थलमें समुदायपातनिका है । हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे सूक्ष्म परसमयका स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-[जदि] यदि [ णाणी ] ज्ञानी शास्त्रोंको जाननेवाला कोई [अण्णाणादो] अज्ञानभावसे [ सुद्धसंपओगादो ] शुद्ध आत्माओंकी भक्तिसे [ दुक्खमोक्खं] दुःखोंसे मुक्ति [हनदि त्ति मण्णदि ] हो जाती है ऐसा मानने लगे तो वह [ जीवो ] जीव [ परसमयरदो] पर समय अर्थात् पर पदार्थमें रत [हवदि ] है। ___ विशेषार्थ-जो कोई ज्ञानी होकर भी शुद्धात्माके अनुभवरूप ज्ञानसे विलक्षण अपने अज्ञान भावसे ऐसा श्रद्धान करलेवे कि शुद्ध बुद्ध एक स्वभावके धारी अहँतोंमें व उस शुद्ध बुद्ध स्वभावके आराधन करनेवाले साधुओंमें भक्ति करनेसे ही अपने आत्मस्वभावकी भावनासे उत्पन्न अतीन्द्रिय सुखसे प्रतिकूल जो दुःख उससे मुक्ति होजायेगी तो वह जीव उसी समयसे परसमयरत हो जाता है। यदि कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्माकी भावनारूप परम उपेक्षा संयममें ठहरना चाहता है परन्तु वहाँ स्थिर रहने की शक्ति न रखनेपर क्रोधादि अशुद्ध परिणामोंसे बचनेके लिये तथा संसारकी स्थिति छेदनेके लिये जन पंचपरमेष्ठीकी गुणस्तवन आदि रूप भक्ति करने लगता है तब वह सूक्ष्म पर पदार्थमें रत होनेके कारणसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421