Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 394
________________ ३९० मोक्षमार्ग प्रपंच मूनिका चूलिका विशेषार्थ-ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र जन्म शुद्धात्माके आश्रित होते हैं तब मोक्षके कारण होते हैं परन्तु जब ये शुद्धात्मा के सिवाय अन्यके आश्रय होते हैं तब बंधके कारण होते हैं । इसपर दृष्टांत देते हैं-जैसे घृत आदि पदार्थ स्वभावसे ठंडे होनेपर भी अग्निके संयोगसे दाहके कारण हो जाते हैं तैसे ही ये रत्नत्रय स्वभावसे मुक्तिके कारण हैं तोभी पंचपरमेष्ठी आदि शुभ द्रव्यके आश्रममें होनेसे साक्षात् पुण्यबन्धके कारण होते हैं तथा ये ही श्रद्धान ज्ञान चारित्र जब मिथ्यादर्शन तथा विषय और कषाय के कारण परद्रव्योंके आश्रयमें होते हैं तब पापबंधके कारण भी होते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जीवके स्वभावमें निश्चल आचरण करना मोक्षमार्ग है ।।१६४।। इस तरह शुद्ध रत्नत्रयसे मोक्ष व अशुद्ध रत्नत्रयसे पुण्यबंध होता है ऐसा कहते हुए गाथा पूर्ण हुई। सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतद् । अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्ध-संपओगादो। हवदि त्ति दुक्ख-मोक्खं परसमय-रदो हवदि जीवो ।।१६५।। अज्ञानात् ज्ञानी यदि मन्यते शुद्धसंप्रयोगात् । भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः ।।१६५।। अर्हदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाघनीभूतेषु भक्तिभावानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्रयोगः । अथ खल्बज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवतीत्यभिप्रायेण खिमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरंगवृत्तिरितरो जन इति ।। १६५।। अन्वयार्थ— [शुद्धसंप्रयोगाद् ] शुद्धसंप्रयोगसे ( शुभ भक्तिभावसे ) ( दुःखमोक्षः भवति ) दुःखमोक्ष होता है ( इति ) ऐसा ( यदि ) यदि ( अज्ञानात् ) अज्ञानके कारण ( ज्ञानी ) ज्ञानी ( मन्यते ) माने-तो वह ( परसमयरत: जीवः ) परसमयरत जीव ( भवति ) है। टीका-यह, सूक्ष्म परसमयके स्वरूपका कथन है । सिद्धिके साधनभूत ऐसे अर्हतादि भगवन्तोंके प्रति भक्तिभावसे अनुरंजित चित्तवृत्ति यहाँ 'शुद्धसंप्रयोग' है। अज्ञानअंशके आवेशसे यदि ज्ञानवान भी 'उस शुद्धसम्प्रयोगसे मोक्ष होता है' ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें ( शुद्धसम्प्रयोगमें ) प्रवर्ते, तो तब तक वह भी रागांशके सद्भावके कारण ‘परसमयरत' कहलाता है। तो फिर निरंकुश रागरूप कालिमासे कंलकित ऐसी अंतरंग वृत्तिवाला इतरजन क्या परसमयरत नहीं कहलायेगा ? अवश्य कहलायेगा ही ।।१६५॥

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