Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 388
________________ ३८४ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका मृतरसास्वादतृप्तिरूपपरमकलानुभवात् स्वशुद्धात्माश्रितनिश्चयदर्शनज्ञानचारित्रैरभेदेन परिणतो यदा भवति तदा निश्चयनयेन भित्रसाध्यसाधनस्याभावादयमात्मैव मोक्षमार्ग इति तत: स्थितं सुवर्ण सुवर्णपाषाणवनिश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधकभावो नितरां संभवतीति । हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे यद्यपि पहले स्वसमयके व्याख्यानके कालमें "जो सव्यसंगमुस्को" इत्यादि दो गाथाओके द्वारा निश्चयमोक्षमार्गका व्याख्यान किया था तथापि यह निश्चयमोक्षमार्ग इसके पहली गाथा में कहे हुए व्यवहारमोक्षमार्गके द्वारा साधने योग्य है इस प्रतीतिके लिये फिर भी उपदेश करते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-- गो. आ7) जो आमा सु) सास्तयों ( तेहिं) उन (तिहि ) तीनोंसे एकताको प्राप्त करता हुआ ( किंचिवि अण्णं) कुछ भी अन्य कामको (ण कुणदि) नहीं करता है ( ण मुयदि ) न कुछ छोड़ता है ( सो) वह आत्मा ( मोक्खमग्गोत्ति ) मोक्षमार्ग है ऐसा ( णिच्चयणयेण) निश्चयनयसे ( भणिदो) कहा गया है। विशेषार्थ-जो आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे एकाग्र होकर अपने आत्मिक भावके सिवाय क्रोधादि भावोंको नहीं करता है और न आत्मा के आश्रयमें रहनेवाले अनंतज्ञान आदि गुणसमूहको त्यागता है वहीं निश्चयमोक्षमार्ग स्वरूप है । अपने ही शुद्ध आत्माकी रुचि निश्चय सम्यग्दर्शन है, उसी का ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है तथा उसी शुद्ध आत्माका निश्चल अनुभव सो निश्चय सम्यक्चारित्र है । इन तीनोंकी एकता निश्चय मोक्षमार्ग है-इसीका साधक व्यवहार मोक्षमार्ग है जो किसी अपेक्षा अनुभवमें आनेवाले अज्ञानकी वासनाके विलय होनेसे भेद रत्नत्रय स्वरूप है । इस व्यवहार मोक्षमार्गका साधन करता हुआ गुणस्थानोंके चढ़नेके क्रमसे जब यह आत्मा अपने ही शुद्ध आत्मिक द्रव्यकी भावनासे उत्पन्न नित्य आनन्द स्वरूप सुखामृत रसके आस्वादसे तृप्तिरूप परम कलाका अनुभव करनेके द्वारा अपने ही शुद्धात्माके आश्रित निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रमय हो एक रूपसे परिणमन करता है तब निश्चयनयसे भिन्न साध्य और भिन्न साधक भावके अभावसे यह आत्मा ही मोक्षमार्गरूप हो जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सुवर्ण-पाषाणके लिये अग्निकी तरह निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गमें साध्य और साधकभाव भलेप्रकार सम्भव है ।।१६१।। आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत् । जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्ण-मयं । सो चारित्तं णाणं दंसण-मिदि णिच्छिदो होदि ।।१६२।।

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