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पंचास्तिकाय प्राभृत
इति । तथाहि यः कर्ता शुद्धगुणपर्यायपरिणतनिजशुद्धात्मद्रव्यात्परिभ्रष्टो भूत्वा निर्मलात्मतत्त्वत्रिपरीतेन रागभावेन परिणम्य शुभाशुभपरद्रव्योपेक्षालक्षणाच्छुद्धोपयोगाद्विपरीतः समस्तपरद्रव्येषु शुभमशुभं वा भावं करोति स ज्ञानानंदैकस्वभावात्मा तत्त्वानुचरणलक्षणात्स्वकीयचारित्राद् भ्रष्टः सन् स्वसंवित्त्यनुष्ठानविलक्षणपरचरित्रचरो भवतीति सूत्राभिप्रायः ।। १५६ ॥
हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे पर समयमें परिणमन करते हुए पुरुषका स्वरूप फिर भी प्रगट करते हैं
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अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( जदि) जब ( जो ) जो कोई ( रागेण) रागभावसे (पद) के सिवाय में ( सुहं असुहं भावं ) शुभ या अशुभ भावको ( कुणदि ) करता है (सो) तब वह ( जीवो ) जीव ( सगचरित्तभट्ठो) आत्मिक चारित्रसे भ्रष्ट होकर ( परचरियचरो ) पर चरितमें चलनेवाला ( हवदि) हो जाता है ।
विशेषार्थ जो कोई शुद्ध गुण पर्यायोंमें परिणमनेवाले अपने शुद्ध आत्मद्रव्यसे भ्रष्ट होकर निर्मल आत्मतत्त्वसे विपरीत रागभावसे परिणमन करके शुभ और अशुभ द्रव्योंमें उदासीनतारूप शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व परद्रव्योंके सम्बन्धमें शुभ या अशुभ भाव करता है सो ज्ञानानंदमय एक स्वभावरूप आत्माके तत्त्वमें चलनेरूप अपने ही चारित्रसे भ्रष्ट होकर स्वसंवेदन में रमण क्रियासे विलक्षण परचारित्रमें चलनेवाला हो जाता है, यह सूत्रका अभिप्राय है ।। १५६।।
परचारितप्रवृत्तेर्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिषेधनमेतत् ।
आसवदि जेण पुण्णं पावं अप्पणोध भावेण ।
सो तेण पर-चरित्तो हवदि त्ति जिणा परूवंति । । १५७ । ।
आस्त्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन ।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिना: प्ररूपयन्ति । । १५७ ।।
इह किल शुभोपरक्तो भावः पुण्यास्त्रवः, अशुभोपरक्तः पापास्त्रव इति । तत्र पुण्यं पापं वा येन भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररूप्यते । ततः परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव न मोक्षमार्ग इति ।। १५७ ।।
अन्वयार्थ- ( येन भावेन ) जिस भावसे ( आत्मन: ) आत्माको [ पुण्यं पापं वा ] पुण्य अथवा पाप ( अथ आस्रवति ) आस्रवित होते हैं, ( तेन) उस भाव द्वारा ( स ) वह (जीव ) ( परचरित्र : भवति ) परचारित्र होता है --- ( इति ) ऐसा (जिना: ) जिन (प्ररूपयन्ति ) प्ररूपित करते हैं ।