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मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका
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केन कृत्वा । सहावेण — निर्विकारचैतन्यचमत्कारप्रकाशेनेति । ततः स्थितं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे जीवस्वभावे निश्चलावस्थानं मोक्षमार्ग इति ।। १५८ ।।
हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे स्वचरितमें प्रवर्तन करनेवाले पुरुषका स्वरूप विशेष करके कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( जो ) जो ( सव्वसंगमुक्को) सर्व परिग्रहसे रहित होकर ( णण्णमणो ) एकाग्र मन होता हुआ ( अप्पाणं) आत्माको (सहावेण ) स्वभाव रूपसे (यिद ) निश्चल होकर ( जाणदि ) जानता है ( पस्सदि ) देखता है (सो) वह ( जीवो ) जीव ( सगचरियं) स्वचरित को ( चरदि } आचरण करता है ।
विशेषार्थ जो तीन लोककी व तीन कालकी सब बाहरी व भीतरी परिग्रहको मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदनासे त्यागता हुआ भी परिग्रहरहित परमात्माकी भावनासे पैदा होनेवाले सुन्दर आनंदसे भरे हुए परमानंदमय सुखरूपी अमृतके स्वादसे पूर्ण कलशकी तरह सर्व आत्माले प्रदेशोंमें भरा हुआ है और कपोतलेश्या आदिको लेकर देखे, सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी इच्छा आदिको लेकर सर्व परभावोंसे पैदा होनेवाले विकल्प जालोंसे रहित होजाने के कारण एकाग्रमन है तथा अपने आत्माको निर्विकार चैतन्यके चमत्कारसे प्रकाशरूप निश्चलपने ऐसा जानता है कि यह आप और परको जाननेवाला है व उसी आत्माको विकल्प रहित होकर देखता है अर्थात् अनुभव करता है वही जीव अपने शुद्ध आत्माके अनुभवरूप आचरणका व परमागमकी भाषासे वीतराग परम सामायिक नामके आत्मिक चारित्रका अनुभव करता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वरूप जीवके स्वभावमें निश्चलतासे ठहरना सोई मोक्षमार्ग है ।। १५८ ।।
शुद्धस्वचरितप्रवृत्तिपथप्रतिपादनमेतत् ।
चरियं चरदि सगं सो जो परदव्व- प्यभाव- रहिदप्पा | दंसण - णाण-वियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो । । १५९ ।।
चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा । दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः ।। १५९ ।।
यो हि योगीन्द्रः समस्तमोहव्यूहबहिर्भूतत्वात्परद्रव्यस्वभावरहितात्मा सन्, स्वद्रव्यमेकमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन चरति, स खलु स्वकं चरितं चरति । एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्यसाधनभावं निश्चयमाश्रित्य