Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 380
________________ ३७६ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका टीका – यहाँ, परचारित्रप्रवृत्ति बंधहेतुभूत होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध किया गया हैं । यहाँ वास्तवमें शुभोपरक्त भाव ( -शुभरूप विकारी भाव ) वह पुण्यास्त्रव है और अशुभोपरक्त भाव ( -अशुभरूप विकारी भाव ) पापास्त्रव है। वहाँ, पुण्य अथवा पाप जिस भावसे आस्त्रत्रित होते हैं, वह भाव जब जिस जीवको हो तब वह जीव उस भाव द्वारा परचारित्र हैं—ऐसा ( जिनेन्द्रों द्वारा ) प्ररूपित किया जाता है। इसलिये परचारित्र में प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही है, मोक्षमार्ग नहीं है | १५७॥ सं०ता० - अथ परचरित्रपरिणतपुरुषस्य बंधं दृष्ट्वा मोक्षं निषेधयति । अथवा पूर्वोक्तमेव परसमयस्वरूपं वृद्धमतसंवादेन दृढयति, आसवदि जेण पुष्णं पात्रं वा- आस्रवति वेन पुण्यं पापं वा येन निरास्त्रवपरमात्मतत्त्वविपरीतेन सम्यगास्त्रवति । किं । पुण्यं पापं वा । येन केन भावेन परिणामेन । कस्य भावेन ? अप्पगो- आत्मनः अथ — अहो सो लेण परचरित्तो हवदित्ति जिणा परूवेंति-स जीवो यदि निरास्त्रवपरमात्मस्वभावाच्युतो भूत्वा तं पूर्वोक्तं सास्रवभावं करोति तदा स जीवस्तेन भावेन शुद्धात्मानुभूत्याचरणलक्षणस्वचरित्राद् भ्रष्टः सन् परचरित्रो भवतीति जिना: प्ररूपयंति । ततः स्थितं सास्रवभावेन मोक्षो न भवतीति । १५७ ।। एवं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावाच्छुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुभूतिरूपनिश्चयमोक्षमार्गविलक्षणस्य परसमग्रस्य विशेषविवरण मुख्यत्वेन गावाद्वयं गतं । हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे ऐसा कहते हैं कि जो परमें आचरण करते हैं उन पुरुषोंको बंध देखा जाता है उनके मोक्ष नहीं हो सकता है । अथवा उसी पूर्वमें कहे हुए परसमयके स्वरूपको प्राचीन मतको कहते हुए दृढ करते हैं अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( अध ) तथा ( जेण ) जिस ( अप्पणो भावेण ) आत्माके भावसे (पुण्णं ) पुण्य (वा) या ( पावं ) पाप ( आसवदि) आता है ( तेण ) तिस भावके कारण (सो) यह जीव ( परचरितो ) परमें आचरण करनेवाला ( हवदित्ति ) हो जाता है ऐसा (जिणा ) जिनेन्द्र ( परूवंति ) कहते हैं । विशेषार्थ - आस्रवरहित परमात्म-तत्त्वसे विपरीत भावके द्वारा परिणमन करके जब यह जीव पुण्य या पापका आस्त्रव करता है तब निरास्रव परमात्मा के स्वभावसे छूटा हुआ शुद्धात्माके अनुभव आचरणरूप आत्माके चारित्रसे भ्रष्ट होकर परमें आचरण करनेवाला हो जाता है इससे यह सिद्ध हुआ कि जिस भावसे पापादिका आस्त्रव होता है, उस भावसे मोक्ष नहीं हो सकता ।। १५७ ।। इस प्रकार विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमय शुद्धआत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व

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