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षड्वव्य-पंचास्तिकायवर्णन किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं सानिधनाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणता: भविष्यतीत्याशंक्येदमक्तम् । जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधनाः त एवौदयिकक्षायोपशामकौपशमिकभावः सादिसनिधनाः । त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधना; न च सादित्वात्सनिघनत्वं क्षायिकभावस्याशक्यम् । स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्य, सद्भावेन चानंता एव जीवाः प्रतिज्ञायते । न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्यलक्षणकभावानां सादिसनिधनानि सानिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्, ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः पंकसंपृक्ततोयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति ।।५३।।
हिन्दी समय व्याख्या गाथा-५३ अन्वयार्थ-( जीवा: ) जीव ( अनादिनिधनाः ) ( पारिणामिकभावसे ) अनादि-अनंत है. ( सांताः ) ( औपशामक आदि तीन भावोंसे ) सांत ( अर्थात् सादि-सांत ) हैं ( च ) ( जीवभावात् अनंता: ) जीवभावसे अनंत हैं ( अर्थात् जीव सद्भावरूप क्षायिकभावसे सादि-अनंत हैं) ( सद्भावत: अनंता: ) क्योंकि सद्भावसे जीव अनंत ही होते हैं । ( पञ्चाग्रगुप्पप्रधानाः च ) वे पांच मुख्य गुणोंसे प्रधानतावाले हैं।
टीका-निश्चयसे पर-भावोंका कर्तृत्व न होनेसे जीव स्व-भावोंके कर्ता होते हैं, और उन्हें. ( अपने भावोंको ) करते हुए, क्या वे अनादि-अनंत हैं ? क्या सादि-सांत है ? क्या आदि अनंत हैं ? क्या तदाकाररूप ( उस-रूप ) परिणत हैं ? क्या तदाकाररूप अपरिणत है ? ऐसी आशंका करके यह कहा गया है। अर्थात् उन आशंकाओंके समाधानरूपसे यह गाथा कही गई है।
जीव वास्तवमें सहजचैतन्यलक्षण पारिणामिक भावसे अनादि-अनन्त हैं । वे ही औदायक. क्षायोपशमिक और औपशमिक भावोंसे सादि-सांत हैं। वे ही क्षायिक भावसे सादि-अनन्त हैं। ___ क्षायिक भाव सादि होनेसे वह सान्त होगा' ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है । कारण इस प्रकार है-वह वास्तवमें उपाधिकी निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ, सिद्धभावको भांति, जीवका सद्भाव ही है ( अर्थात् कमोंपाधिके क्षयरूपसे प्रवर्तता है इसलिये क्षायिक भाव जीवका सद्भाव ही है ) और सद्भावसे तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं इसलिये क्षायिकभावने जीत्र अनन्त ही हैं अर्थात् विनाशरहित ही हैं।
पुनश्च, अनादि-अनन्त सहजचैतन्यलक्षण एक भाववाले उनके सादि-सांत और यादिअनन्त भावान्तर घटित नहीं होते ऐसा कहना योग्य नहीं है, [ क्योंकि ] वे वास्तव में अनादि कर्मस मलिन वर्तते हुए कीचड़से संपृक्त जलकी भांति तदाकाररूप परिणत होने के कारण, पांच प्रधान गुणोंसे प्रधानतावाले ही अनुभवमें आते हैं ।। ५३।।