Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
२४३ गतिका उदासीन ही प्रसारक है, उसी प्रकार धर्म जीवपुद्गलोंको ( गतिपरिणाम में ) मात्र आश्रयरूप कारणपनेसे गतिका उदासीन ही प्रसारक है।
और ( अधर्मास्तिकायके सम्बन्धमें भी ऐसा है कि ) जिस प्रकार गतिपूर्वकस्थितिपरिणत अश्व अश्वसवारके ( पतिपूर्वक ) स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उस प्रकार अधर्म नहीं है । वह (अधर्म ) वास्तवमें निष्क्रिय होनेसे कभी गतिपूर्वक स्थितिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता, तो फिर उसे सहस्थायीपनेसे परके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्तृत्व कहांसे होगा ? ( नहीं हो सकता ) किन्तु जिस प्रकार पृथ्वी अश्वको ( गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें ) मात्र आश्रयरूप कारणकी भांति गतिपूर्वक स्थितिकी उदासीन ही प्रसारक है, उसी प्रकार अधर्म जीव-पुनलोंको पूर्वक पासधारणा में , मात्र आश्रयरूप कारणपनेसे गतिपूर्वक स्थितिका उदासीन ही प्रसारक है ।।८८।।
सं० ता०-अथ धर्माधर्मी गतिस्थितिहेतुत्वविषयेऽत्यंतोदासीनाविति निश्चिनोति, ण य गच्छदिनैव गच्छति । स कः । धम्मत्थी-धर्मास्तिकायः । गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स-गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य, हवदि-तथापि भवति । स कः । पसरो-प्रसरः प्रवृत्ति: । कस्याश्च । गदिस्स य-गतेश्च । केषां गतेः । जीवाणं पोग्गलाणं च जीवानां पुद्गलानां चेति । तथाहि यथा तुरंगम: स्वयं गच्छन् स्वकीयारोहकस्य गमनहेतुर्भवति न तथा धर्मास्तिकायः ? कस्मात् ? निष्क्रियत्वात् किंतु यथा जलं स्वयं तिष्ठत्सत्स्वयं गच्छतां मत्स्यानामौदासीन्येन गतेनिमित्तं भवति तथा धोपि स्वयं तिष्ठन्सन् स्वकीयोपादानकारणेन गच्छतां जीवपुद्गलानामप्रेरकत्वेन बहिरंगगतिनिमित्तं भवति । यद्यपि धर्मास्तिकाय उदासीनो जीवपुद्गलगतिविषये तथापि जीवपुगलानां स्वकीयोपादानबलेन जले मत्स्यानामिव गतिहेतुर्भवति, अधर्मस्तु पुनः स्वयं तिष्ठत्सन् स्वकीयोपादानकारणेन तिष्ठतां जीवपुद्गलानां तिष्ठतामश्वादीनां पृथिवीवत्पथिकानां छायावद्वा स्थितेर्बहिरंगहेतुर्भवतीति भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानामभिप्राय: ।।८८।।
हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे यह निश्चय करते हैं कि धर्म और अधर्म गति और स्थितिके कारण होते हैं तथापि उन क्रियाओंके प्रति स्वयं अत्यंत उदासीन हैं प्रेरक नहीं है ।
अन्ययसहित विशेषार्थ-(धम्मत्थी) धर्मास्तिकाय ( ण य गच्छदि ) न तो स्वयं गमन करता है (ण अण्णदवियस्स गमणं करेदि) न दूसरे द्रव्योंको गमन कराता है तो भी (स) वह जीवाणं पोग्गलाणं च) जीवोंकी और पुलोंकी (गती) गतिमें (प्पसरो) प्रवर्तक या निमित्त होता है। .
विशेषार्थ-जैसे घोड़ा स्वयं चलता हुआ अपने ऊपर चढ़े हुए सवारके गमनका कारण होता है ऐसा धर्मास्तिकाय नहीं है, क्योंकि वह क्रियारहित है, किंतु जैसे जल स्वयं ठहरा हुआ है तो भी स्वयं अपनी इच्छासे चलती हुई मछलियोंके गमनमें उदासीनपनेसे निमित्त हो