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पंचास्तिकाय प्राभृत निश्चयन गुणगुणिनोरभेदाद्विशिष्टभेदज्ञानपरिणतत्वादात्मापि ज्ञाने । सो-स: पूर्वोक्तलक्षण: परमात्मध्यानं ध्याता । किं करोति ? संधुणोदि कम्मरयं---संधुनोति कर्मरजो निर्जरयतीति । अत्र वस्तुवृत्त्या ध्यानं निर्जराकारणं व्याख्यामिति सूत्रतात्पर्य ।।१४५।।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे प्रकट करते हैं कि आत्मध्यान ही मुख्यतासे कर्मोकी निर्जराका कारण है
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जो) ( संवरेण जुत्तो) संवरसे युक्त होकर ( अप्पट्ठपसाधगो) आत्माके स्वभावका साधनेवाला ( हि) निश्चयसे ( अप्पाणं) आत्माको ( मुणिऊण } जानकरके ( णियदं) निश्चल होकर [णाणं] आत्माके ज्ञानको [ झादि] ध्याता है ( सो) वह [ कम्मरयं ] कर्मोंकी रजको [ संधुणोदि ] दूर करता है।
विशेषार्थ-जो कोई शुभ व अशुभ रागादिरूप आस्रवभावोंको रोकता हुआ संवर भावसे युक्त है तथा त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्वको समझकर अन्य प्रयोजनोंसे अपनेको हटाकर शुद्धात्मानुभवरूप केवल अपने कार्यका साधनेवाला है व जो सर्व आत्माके प्रदेशोंमें निर्विकार नित्य, आनन्दमय एक आकारमें परिणमन करते हुए आत्माको रागादि विभाव भावोंसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा जानकर निश्चल आत्माकी प्राप्तिरूप निर्विकल्प ध्यानसे निश्चयसे गुण गुणीके अभेदसे विशेष भेदज्ञानमें परिणमनस्वरूप ज्ञानमय आत्माको ध्याता है सो परमात्माध्यानका ध्यानेवाला कर्मरूप रजकी निर्जरा करता है । वास्तवमें ध्यान ही निर्जराका कारण है ऐसा इस सूत्रमें व्याख्यान किया गया है यह तात्पर्य है ।। १४५।।
ध्यानस्वरूपाभिधानमेतत् । जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोग-परिकम्मो । तस्स सुहासुह-डहणो झाण-मओ जायए अगणी ।।१४६।।
यस्य न विद्यत्ते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म ।
तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः ।। १४६।। शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम् । अथास्यात्मलाभविधिरभिधीयते । यदा खलु योगी दर्शनचारित्रमोहनीयविपाकं पुदलकर्मत्वात् कर्मसु संहृत्य, तदनुवृत्ते: व्यावृत्त्योपयोगममुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं निवेशयति, तदास्य निष्क्रिय चैतन्यरूपस्वरूपविश्रान्तस्य वाङ्मन: कायानभावयतः स्वकर्मस्वव्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थसिद्ध्युमायभूतं ध्यानं जायते इति । तथा चोक्तम्