Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन एवं नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये निर्जराप्रतिपादकमुख्यतया
गाथात्रयोगाष्टमोतराधिकारः समाप्तः ।। हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे पहली गाथामें ध्यानको निर्जराका कारण बताया है उस ध्यानको उत्पत्तिकी मुख्य सामग्री बताते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-ड जस्स . जिस महात्माके भीतर ( रागो) राग, ( दोसो) द्वेष, ( मोहो) मोह, (वा) तथा ड जोनपरिकम्मो मन, धन, काय योगोंका वतन (ण) नहीं ( विज्जदि ) है ड तस्स . उसके अन्दर (सुहासुहडहणो) शुभ या अशुभ भावोंको जलानेवाली (झाणमओ) ध्यानमय ( अगणी) अग्नि ( जायए) पैदा होती है।
विशेषार्थ-दर्शनमोह और चारित्रमोह कर्मके उदयसे पैदा होनेवाला शरीर आदि पदार्थोमें ममतारूप विकल्प जाल उससे रहित तथा मोहरहित शुद्ध आत्माके अनुभव आदि गुणोंसे पूर्ण जो उत्कृष्ट आत्मतत्त्व है उससे विलक्षण राग, द्वेष तथा मोहका परिणाम है । शुभ तथा अशुभ कर्मकांडसे रहित व क्रियारहित शुद्ध चैतन्यकी परिणतिरूप ज्ञानकांडसे पूर्ण परमात्म पदार्थसे विपरीत मन, वचन, कायके क्रियारूप व्यापारको योग परिणाम कहते हैं। जिस योगीके न ये रागद्वेष मोह हैं न ये योगोंके भाव हैं वही ध्याता है । उसके लिये यही ध्यानकी मुख्य सामग्री कही गई है। अब ध्यानका लक्षण कहते हैं। ध्यानकी वही अग्नि कहलाती है जो शुभ तथा अशुभ कर्मरूपी ईंधनको जलानेके लिये बलवती है। जिसके यह ध्यानकी अग्नि पैदा होती है उस योगीकी परिणति विकाररहित व क्रियारहित चैतन्यके चमत्कारमें रमण करनेवाली होती है जैसे थोड़ोसी भी अग्नि बहुत अधिक तृण व काठके ढेरको थोड़े ही कालमें जला देती है तैसे मिथ्यादर्शन व कषाय आदि विभावोंकी त्यागरूप महाबायुसे बढ़ती हुई तथा अपूर्व व अद्भुत परमानंदपय सुखरूपी घृतसे सींची हुई निश्चल आत्माकी अनुभूतिरूप ध्यानकी अग्नि मूल व उत्तर प्रकृतिके भेदोंसे अनेकरूप कर्मरूपी ईंधनके ढेरको क्षणमात्रमें जला देती है। यहाँ शिष्यने कहा-इस पंचमकालमें ध्यान नहीं हो सकता है क्योंकि न तो इस समय दस पूर्व व चौदह पूर्वके धारी श्रुतज्ञानी पुरुष हैं, न प्रथम संहनन ही है । इस शंकाका समाधान आचार्य करते हैं-इस पंचमकालमें शुक्लध्यान नहीं है जैसा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवने स्वयं मोक्षपाहुड में कहा है__इस भरतक्षेत्रके पंचम दुःखकालमें सम्यग्ज्ञानीके धर्मध्यान हो सकता है सो आत्मस्वभावके ज्ञाताके होता है । जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी है। अब भी मन, वचन, कायको शुद्ध रखनेवाले आत्माका ध्यान करके इंद्रपना तथा लौकान्तिक देवपना पा सकते हैं। वहाँसे आकर मोक्ष जा सकते हैं।