Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 358
________________ ३५४ नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन ___ ग्रहणं हि कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशवर्तिकर्मस्कन्धानुप्रवेशः । तत् खलु योगनिमित्तम् । योगो वाङ्मनःकायकर्मवर्गणालम्बन आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः । बन्धस्तु कर्मपुद्गलानां विशिष्टशक्तिपरिणामेनावस्थानम् । स पुनर्जीवभावनिमित्तः । जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः, मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः । तदत्र पुद्गलानां ग्रहणहेतुत्वाद् बहिरङ्गकारणं योगः, विशिष्टशक्तिस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव एवेति ।। १४८।। ___अन्वयार्थ-( योगनिमित्तं ग्रहणम् ) ग्रहणका ( -कर्मग्रहणका ) निमित्त योग हैं, ( योग: मनोवचनकायसंभूतः ) योग मनवचनकायजनित ( आत्मप्रदेशपरिस्पंदरूप ) है । ( भावनिमित्त: बंध: ) बंधका निमित्त भाव है, ( भाव: रतिरागद्वेषमोहयुत: ) भाव रतिरागद्वेषमोहसे युक्त (आत्मपरिणाम) है। टीका—यह, बंधके बहिरंग कारण और अंतरंग कारणका कथन हैं। ग्रहण अर्थात् कर्मपुद्गलोंका जीवप्रदेशवर्ती ( -जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रमें स्थित } कर्मस्कन्धोंमें प्रवेश, उसक, निशिक्त यो! है। योग अर्थात् वयसवर्गणा, मनोवर्गणा, कायवर्गणा और कर्मवर्गणाका जिसमें आलम्बन हो ऐसा आत्मप्रदेशका परिस्पंदरूप है। बंध अर्थात् कर्मपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप परिणाम सहित स्थित रहना, उसका निमित्त जीवभाव है। जीवभाव रति राग द्वेष मोहयुक्त ( परिणाम ) है अर्थात् मोहनीयके विपाकसे उत्पन्न होनेवाला विकार है। इसलिये यहाँ ( बंधमें), बहिरंग कारण ( -निमित्त ) योग है क्योंकि वह पुद्गलोंके ग्रहणका हेतु है, और अंतरंग कारण ( -निमित्त ) जीवभाव ही है क्योंकि वह ( कर्मपुद्गलाकी ) विशिष्ट शक्ति तथा स्थितिका हेतु है ।।१४८।। सं० ता०—अभ्य बहिरंगांतरंगबंधकारणमुपदिशति, योगनिमित्तेन ग्रहणं कर्मपदलादानं भवति । योग इति कोर्थः । जोगो मणवयणकायसंभूदो-योगो मनोवचनकायसंभूतः निक्रियनिविकारचिज्योति परिणामाद्भित्रो मनोवचनकायवर्गणालंबनरूपो व्यापार: आत्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनित: कर्मादानहेतुभूतो योगः। भावणिमित्तो बंधो-भावनिमित्तो भवति । स क; | स्थित्यनुभागबंधः । भाव: कथ्यते । भावो रदिरागदोसमोहजुदो-रागादिदोषरहितवैतन्यप्रकाशपरिणतेः पृथग्भूतो मिथ्यात्वादिकषायादिदर्शनचारित्रमोहनीयत्रीणि द्वादशभेदात् भावो रतिरागद्वेषमोहयुक्तः । अत्र रतिशब्देन हास्याविनाभाविनोकषायान्तरभूता रतिर्ग्राह्या, रागशब्देन तु मायालोभरूपो रागपरिणाम इति, द्वेषशब्देन तु क्रोधमानारतिशोकभयजुगुप्सारूपो द्वेषपरिणामो षट्प्रकागे भवति, मोहशब्देन दर्शनमोहो गृह्यते इति । अत्र यत: कारणात्कर्मादानरूपेण प्रकृतिप्रदेशबंधहेतुस्तत: कारणाहिरंगनिमित्तं योग; चिरकालस्थायित्वेन स्थित्यनुभागबंधहेतुत्वादभ्यंतरकारणं कषाया इति तात्पर्य ।।१४८||

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421