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पंचास्तिकाय प्राभृत
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लेपसे रहित तुम्बीकी तरह कर्मोंकी संगति छूटनेसे, एरंडके बीजकी तरह बन्ध के टूटने से व अग्निको शिखाकी तरह ऊर्ध्वगमन स्वभावसे ऊपरको होती है। वे लिख भगवान लोकके आगे, गमनमें कारणभूत धर्मास्तिकायके न होनेसे नहीं जाते हैं- लोकाग्रमें ठहरे हुए इन्द्रियके विषयोंसे अतीत अविनाशी परमसुखको अनंत कालतक भोगते रहते हैं ।। १५३ । ।
इस तरह द्रव्यमोक्षका स्वरूप दो सूत्रोंसे कहा गया । भावमोक्ष व द्रव्यमोक्षके कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओंमें दो स्थलोंके द्वारा दशवाँ अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ ।
इस प्रकार इस तात्पर्यवृत्तिमें पहले ही "अभिबंदिऊण सिरसा" इस गाथा आदिको लेकर चार गाथाएँ, व्यवहार मोक्षमार्गके कथनकी मुख्यतासे हैं फिर सोलह गाथाओं में जीव पदार्थका व्याख्यान है। फिर चार गाथाएँ अजीव पदार्थके निरूपणमें हैं। फिर तीन गाथाओं में पुण्य पाप आदि सात पदार्थोंकी पीठिकाकी सूचना है। फिर चार गाथाएँ पुण्यपाप दो पदार्थोंके वर्णनके लिये तथा छः गाथाएँ शुभ व अशुभ आस्रवके व्याख्यानके लिये हैं। पश्चात् तीन सूत्र संवर पदार्थके स्वरूप कथनके लिये, फिर तीन गाथाएँ निर्जरा पदार्थके व्याख्यानमें फिर तीन सूत्र बंध पदार्थके कहनेके लिये पश्चात् चार सूत्र मोक्षपदार्थके व्याख्यान करनेके लिये हैं । इस तरह दश अन्तर अधिकारोंके द्वारा पचास गाथाओं में मोक्षमार्गके अंगरूप तथा दर्शन और ज्ञानके विषयरूप जीवादि नव पदार्थोंका कथन है । इस तरह इस कथनको प्रतिपादन करनेवाला दूसरा महाअधिकार समाप्त हुआ ।
अथ मोक्षमार्गप्रपञ्चसूचिका चूलिका
मोक्षमार्गस्वरूपाख्यानमेतत् ।
जीव- सहावं गाणं अप्पडिहद-दंसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णियदं अत्थित्त-मणिदियं भणियं । । १५४ । । जीवस्वभावं ज्ञानमप्रतिहतदर्शनमनन्यमयम् ।
चारित्रं च तयोर्नियतमस्तित्वमनिन्दितं भणितम् ।। १५४ । ।
जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्गः । जीवस्वभावो हि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वं च तयोर्विशेषसामान्यचैतन्यस्वभावजीवनिर्वृत्वात् । अथ तयोर्जीवस्वरूप भूतयोर्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नयतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादिपरिणत्यभावादनिन्दितं तच्चरितं तदेव मोक्षमार्ग इति । द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं - स्वचरितं परचरितं च, स्वसमयपरसमया