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पंचास्तिकाय प्राभृत 'संपदत्थं' इत्यादि दो सूत्र हैं। फिर इस पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्रका तात्पर्य साक्षात् मोक्षका कारणरूप वीतरागता ही है, इस व्याल्यानको कहते हुए कहा णिस्तुतिकापा' इत्यादि एक सूत्र है । पश्चात् संकोच करते हुए शास्त्रको पूर्ण करने के लिये "मग्गप्पभावणटुं" इत्यादि गाथा सूत्र एक है। इस तरह बारह स्थलोंके द्वारा मोक्षमार्गका विशेष व्याख्यान करनेके लिये तीसरे महाअधिकारमें समुदाय पातनिका है।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे गाथाके पहले आधे भागसे जीवका स्वभाव व दूसरे आधे भागसे जीव स्वभावमें स्थिरतारूप चारित्र मोक्षमार्ग है ऐसा कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जीवसहाओ) जीवका स्वभाव ( अप्पडिहद ) अखंडित ( णाणं) ज्ञान तथा (दंसणं ) दर्शन है ये दोनों ( अणण्णमयं) जीवसे भिन्न नहीं हैं (च) और ( तेसु) इन दोनों अखण्ड ज्ञानदर्शनमें (णियदं) निश्चल रूपसे ( अस्थित्तम् ) रहना सो ( अणिदियं) रागादि दोषोंसे रहित वीतराग (चरियं) चारित्र ( भणियं) कहा गया है । यही चारित्र मोक्षमार्ग है।
विशेषार्थ-इस गाथाका दूसरा अर्थ यह है कि जैसे केवलज्ञान व केवलदर्शन जीवका स्वभाव है वैसे अपने स्वरूपमें स्थितिरूप वीतराग चारित्र भी जीवका स्वभाव है ।सर्व वस्तुओंमें प्राप्त अनंत स्वभावोंको एकसाथ विशेषरूप जाननेको समर्थ केवलज्ञान है तथा उन्हीके सामान्य स्वरूपको एकसाथ ग्रहण करनेको समर्थ केवलदर्शन है-ये दोनों ही जीवके स्वभाव हैं यद्यपि ये दोनों ज्ञान दर्शन स्वाभाविक शुद्ध सामान्य विशेष रूप चैतन्यमय जीव की सत्तासे संज्ञा लक्षण व प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भेदरूप हैं तथापि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा अभेद हैं व तैसे ही यूर्वमें कहे हुए जीव स्वभावसे अभिन्न यह चारित्र है जो उत्याद, व्यय, ध्रौव्य रूप है-इन्द्रियोंका व्यापार न होनेसे विकाररहित व निर्दोष है तथा जीवके स्वभावमें निश्चल स्थितिरूप है क्योंकि कहा है-'स्वरूपे चरणं चारित्रम्' अर्थात् आत्मभावमें तन्मय होना चारित्र है। यह चारित्र दो प्रकारका है-एक परचरित, दूसरा स्वचरित । परचरित यह है कि जो स्वयं नहीं आचरण करके भी दूसरोंके द्वारा अनुभव किये हुये मनोज्ञ काम भोगोंका स्मरणरूप अपध्यान करना तथा आत्मभावसे विपरीत अन्य परभावोंमें आचरण करना । इससे विपरीत अपने स्वरूप में आचरण करना स्वचरित है। यही वास्तवमें चारित्र है, यही परमार्थ शब्दसे कहने योग्य मोक्षका कारण है-अन्य कोई कारण नहीं है । इस मोक्षमार्गको न जानकर हम लोगोंका भी अनंतकाल मोक्षसे भिन्न अनादि संसारके कारणरूप मिथ्यादर्शन तथा रागादि भावोंमें लीन होते हुए