Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 372
________________ ३६८ मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका वित्यर्थः । तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं परभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं परचरितम् यत्स्वभावावस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्दितं तदत्र साक्षान्मोक्षमार्गत्वेनावधारणीयमिति । । १५४ ॥ अब मोक्षमार्गप्रपंचसूचक चूलिका है । अन्वयार्थी--( जीवस्वभाव ) जीवका स्वभाव ( अप्रतिहत ज्ञानम्) अप्रतिहत ज्ञान और ( दर्शनम् ) दर्शन है- ( अनन्यमयम् ) जो कि ( जीवसे ) अनन्यमय हैं। ( तयोः ) उन ज्ञानदर्शनमें (नियतम् ) नियतरूप ( अस्तित्वम् ) अस्तित्व ( अनिन्दितं ) जो कि अनिंदित है( चारित्रं च भणितम् ) उसे ( जिनेन्द्रोंने) चारित्र कहा है । टीका—यह, मोक्षमार्गके स्वरूपका कथन है । जीवस्वभावमें नियतरूप चारित्र वह मोक्षमार्ग हैं। जीवस्वभाव वास्तवमें ज्ञानदर्शन हैं क्योंकि वे [ जीवसे] अनन्यमय हैं। ज्ञानदर्शनका ( जीवसे ) अनन्यमयपना होने का कारण यह है कि विशेष और सामान्यरूप चैतन्य स्वभावसे जीव निष्पन्न हैं अब जो जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन ज्ञानदर्शन में नियत अवस्थित जो उत्पादव्यध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व तथा रागादिपरिणामके अभाव के कारण अनिंदित वह चारित्र है, वही मोक्षमार्ग है। संसारियोंमें चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका है- ( १ ) स्वचारित्र और ( २ ) परचारित्र, ( १ ) स्वसमय और ( ) परसमय ऐसा अर्थ है। वहाँ, स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप ( चारित्र ) वह स्वचारित्र हैं और परभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप [ चारित्र ] वह परचारित्र है । उसमेंसे (अर्थात् दो प्रकारके चारित्रमेंसे), स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र - जो कि परभावमें अवस्थित अस्तित्व से भिन्न होनेके कारण अत्यंत अनिंदित है वह --- - यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप से अवधारना | ।। १५४ ।। सं०ता०TO - इत ऊर्ध्वं मोक्षावाप्तिपुरस्सरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाभिधाने विशेषव्याख्यानेन चूलिकारूपे तृतीयमहाधिकारे "जीवसहाओ णाणं" इत्यादिविंशतिगाथा भवंति । तत्र विंशतिगाथासु मध्ये केवलज्ञानदर्शनस्वभावशुद्ध जीवस्वरूपकथनेन जीवस्वभावनियतचरितं मोक्षमार्ग ' इति कथनेन च "जीवसहाओ णाणं" इत्यादि प्रथमस्थले सूत्रमेकं तदनंतरं शुद्धात्माश्रितः, स्वसमयो मिध्यात्वरागादिविभावपरिणामाश्रितः परसमय इति प्रतिपादनरूपेण "जीवो सहावणियदो" इत्यादि सूत्रमेकं, अथ शुद्धात्मश्रद्धानादिरूपस्वसमयविलक्षणस्य परसमयस्यैव विशेषविवरण मुख्यत्वे 'जो परदव्वं हि' इत्यादि गाथाद्वयं तदनंतरं रागदिविकल्परहितस्वसंवेदनस्वरूपस्य स्वसमयस्यैव पुनरपि विशेषविवरणमुख्यत्वेन 'जो सव्वसंग' इत्यादि गाथाद्वयं, अथ वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादिसम्यकृश्रद्धानज्ञानपंचमहाव्रताद्यनुष्ठानरूपस्य व्यवहारमोक्षमार्गस्य निरूपणमुख्यत्वेन " धम्मादी सद्दहणं” इत्यादि पंचमस्थले सूत्रमेकं अथ व्यवहाररत्नत्रयेण साध्यास्याभेदरत्नत्रयस्वरूपनिश्चय

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