Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
३५७ ( अट्ठवियप्पस्स) आठ प्रकार कर्मोके ( कारणं) बंधके कारण ( भणिदं) कहे गए हैं। ( तेसिपि य) तथा उन द्रव्यकर्म मिथ्यात्वादिके भी कारण ( रागादी) रागादिभाव हैं ( तेसिम ) इन रागादि भावोंके ( अभावे) न होनेपर (ण वझंति ) जीव नहीं बँधते हैं ।
विशेषार्थ-उदयम प्राप्त मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग, चार प्रकार द्रव्यकर्म, नवीन आठ प्रकार द्रव्यकर्मके बन्धके कारण कहे गए हैं । जो कर्म रागादिकी उपाधि से रहित व सम्यक्त्व आदि आठ गुण सहित परमात्म स्वभावके ढकनेवाले हैं । इन द्रव्यकर्मरूप कारणके भी कारण रागादि विकल्पसे रहित शुद्ध आत्मद्रव्यकी परिणतिसे भिन्न जीवसम्बन्धी रागादिभाव हैं क्योंकि जीवसंबंधी रागादि भाव कारणोंके अभाव होनेपर उन चार द्रव्य प्रत्ययों या कारणोंके रहते हुए भी जो जीव इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें ममता भावसे रहित हैं वे बन्धको नहीं प्राप्त होते हैं । यदि जीवके रागादिभावोंके बिना भी इन द्रव्य प्रत्ययोंके उदयमात्रसे बन्ध हो जाता हो तो सदा जीवके बन्ध ही रहे क्योंकि संसारी जीवोंके सदा ही कर्मोंका उदय रहता है । इसलिये यह जाना जाता है कि नवीन द्रव्य कमेकि बन्यके कारण उदय प्राप्त द्रव्य प्रत्यय हैं, उनके भी कारण जीवके रागादि भाव हैं । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि न केवल योग ही बंधके बाहरी कारण हैं किन्तु द्रव्य प्रत्यय भी बंधके बाहरी कारण हैं ।।१४९।।
इस तरह नव पदार्थके कहनेवाले दूसरे महाअधिकारमें बंधके व्याख्यानकी मुख्यतासे तीन गाथाओंके द्वारा नववाँ अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ।
अथ मोक्षपदार्थव्याख्यानम् द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत् । हेदु-मभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसव-णिरोधो । आसव-भावेण विणा जायदि कम्मस्स दुणिरोधो ।।१५।। कम्मस्सा-भावेण य सव्वहू सव्व-लोग-दरिसी य। पावदि इन्दिय-रहिदं अव्वाबाहं सुह-मणंतं ।। १५१।।
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । आस्त्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः ।।१५०।।