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पंचास्तिकाय प्राभृत
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हिन्दी 01० - उत्घानिका- आगे बहिरंग व अंतरंग बन्धके कारणका उपदेश करते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( जोगणिमित्तं ) योगके निमित्तसे कर्म -- पुद्गलोंका ग्रहण होता है (जोगो) योग ( मणवयणकायसंभूदो) मन, वचन कायकी क्रियासे होता है । ( बंधो ) उनका बंध ( भावणिमित्तो ) भावोंके निमित्तसे होता है । ( भावो ) वह भाव (रदिरागदोसमोहजुदो ) रति, राग, द्वेष व मोहसहित मलीन होता है ।
विशेषार्थ - क्रियारहित व निर्विकार चैतन्य ज्योतिरूप भावसे भिन्न मन, वचन, कायकी वर्गणाके आलम्बनसे व्यापाररूप हुआ आत्मप्रदेशोंका हलनचलन रूप लक्षणधारी योग है। जो वीतराय कर्मके क्षयोपशमसे कर्मोंको ग्रहण करनेका हेतु होता है। रागादि दोषोंसे रहित चैतन्यके प्रकाशकी परिणतिसे भिन्न जो दर्शनमोह और चारित्रमोहसे उत्पन्न हुआ भाव सो रति राग द्वेष मोह युक्त भाव है । यहाँ रति शब्दसे रतिके अविनाभावी हास्य व स्त्री, पुं०, नपुंसक वेदरूप नोकषायको लेना व राग शब्दसे माया व लोभरूप परिणामको लेना, द्वेष शब्दसे क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा रूप ऐसे छ: प्रकार द्वेषभावको लेना तथा मोह शब्दसे दर्शनमोह वा मिथ्यादर्शन भावको लेना योग्य है । इन भावोंसे स्थिति तथा अनुभाग बंध होते हैं । यहाँ बंधका बाहरी कारण योग है क्योंकि इसीके कारणसे कर्मोंका ग्रहण होकर प्रकृति तथा प्रदेश बंध होते हैं तथा कषायभाव, अंतरंग कारण है क्योंकि इसी. कषायभावसे कर्मोंमें स्थिति तथा अनुभाग पड़ते हैं जिससे बहुत कालतक कर्मपुङ्गल आत्माके साथ ठहर जाते हैं ।। १४८ ।।
मिथ्यात्वादिद्रव्यपर्यायाणामपि बहिरङ्गकारणद्योतनमेतत् ।
हेदू चदु-वियप्पो अट्ठविय- प्पस्स कारणं भणिदं ।
तेसिं पि य रागादी तेसि-मभावे ण बज्झति । । १४९ । । हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भणितम् ।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते । । १४९ । ।
तन्त्रान्तरे किलाष्टविकल्पकर्मकारणत्वे बन्धहेतुर्द्रव्यहेतुरूपश्चतुर्विकल्पः प्रोक्तः मिथ्यात्यासंयमकषाययोगा इति । तेषामपि जीवभावभूता रागादयो बन्धहेतुत्वस्य हेतवः, यतो रागादिभावानामभावे द्रव्य मिथ्यात्वासंयमकषाययोगसद्भावेऽपि जीवा न बध्यन्ते । ततो रागादीनाम- तरंगत्वान्निश्चयेन बन्धहेतुत्वमवसेयमिति । । १४९ । ।
इति बन्धपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् ।