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पंचास्तिकाय प्राभृत
३५३ नोपाधिवशाद्रक्तः सन् निर्मलज्ञानानंदादिगुणास्पदशुद्धात्मस्वरूपपरिणतेः पृथग्भूतमुदयागतं शुभमशुभं वा स्वसंवित्तेश्च्युतो भूत्वा भावं परिणामं करोति । सो तेण हवदि बंधो-तदा स आत्मा तेन रागपरिणामेन कर्तृभूतेन बंधो भवति । केन करणभूतेन । पोग्गलकम्मेण विविहेण-कर्मवर्गणारूपपुद्गलकर्मणा विविधेनेति । अत्र शुद्धात्मपरिणतेविपरीतः शुभाशुभपरिणामो भावबंध: तन्निमित्तेन तैलम्रक्षितानां मलबंध इव जीवेन सह कर्मपुद्गलानां संश्लेषो द्रव्यबंध इति सूत्राभिप्राय: ।। १४७।।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे निर्विकार परमात्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान तथा चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गसे विलक्षण बंध पदार्थके अधिकारमें "जं सुहं" इत्यादि तीन गाथाओके द्वारा समुदायपातनिका है-प्रथम ही बंधका स्वरूप कहते हैं___अनय सहित सापामार्श (हदि ) अद्ध ! हो) यह कर्मबंध सहित रागी ( अप्पा) आत्मा ( उदिण्णं) कर्मोके उदयसे प्राप्त ( जं) जिस ( सुहम्) शुभ ( असुहम्) अशुभ ( भावं ) भावको ( करेदि ) करता है (स) वही आत्मा ( तेण) उस भावके निमित्तसे (विविहेण ) नाना प्रकार ( पोग्गलकम्मेण ) पुद्गल कर्मोंसे (बंधो हवदि) बंध रूप हो जाता है।
विशेषार्थ-यह आत्मा यद्यपि निश्चयनयसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारी है तथापि व्यवहारनयसे अनादि कर्मबंधनकी उपाधिके वशसे रागी होता हुआ निर्मल ज्ञान तथा आनंद आदि गुणोंका स्थान रूप जो शुद्ध आत्मा उसके स्वरूपमें परिणमन करनेसे भिन्न जो उदयमें प्राप्त शुभ या अशुभ भाव है उसको, अपनी आत्मानुभूतिसे गिरा हुआ करता है तब वही आत्मा उस रागादि परिणामके द्वारा नानाप्रकार कर्मवर्गणा योग्य पुद्गलकर्मोसे बैंध जाता है। यहाँ यह कहा है कि शुद्धात्माकी परिणतिसे विपरीत जो शुभ तथा अशुभ भाव है सो भावबंध है उसके निमित्तसे जैसे तैलसे लिप्त पुरुषोंके मलका बंध होता है वैसे इस अशुद्ध रागी जीवके साथ कर्मयुद्गलोंका सम्बन्ध हो जाता है, सो द्रव्यबंध है । यह सूत्रका अभिप्राय है । । १४७।।
बहिरङ्गान्तरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत् । जोग-णिमित्तं गहणं जोगो मण-वयण-काय-संभूदो। भाव-णिमित्तो बंधो भावो रदि-राग-दोस-मोहजुदो ।। १४८।।
योगनिमित्तं ग्रहणं योगो मनोवचनकायसंभूतः । भावनिमित्तो बन्यो भावो रतिरागद्वेषमोहयुतः ।। १४८।।