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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन इस तरह नव पदार्थके कहनेवाले दूसरे महाअधिकारमें निर्जराके कहनेकी मुख्यतासे तीन गाथाओंके द्वारा आठवाँ अंतर अधिकार पूर्ण हुआ।
अथ बन्ध-पदार्थव्याख्यानम् बन्धस्वरूपाख्यानमेतत् । जं सुह-मसुह-मुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्या। सो तेण हवदि बद्धो पोग्गल-कम्मेण विविहेण ।। १४७।।
यं शुभमशुभमुदीर्णं भावं रक्तः करोति यद्यात्मा।
स तेन भवति बद्धः पुगलकर्मणा विविधेन ।। १४७।। यदि खल्वयमात्मा परोपाश्रयेणानादिरक्तः कर्मोदयप्रभावत्वादीर्णं शुभमशुभं वा भावं करोति, तदा स आत्मा तेन निमित्तभूतेन भावेन पुद्गलकर्मणा विविधेन बद्धो भवति । तदन मोहरागद्वेषस्निग्धः शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भावबन्धः, तन्निमित्तेन शुभाशुभकर्मत्त्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्यमूर्छनं पुद्गलानां द्रव्यबन्ध इति ।।१४७।।
अब बंधपदार्थका व्याख्यान है ।
अन्वयार्थ—( यदि ) यदि ( आत्मा ) आत्मा ( रक्तः ) रक्त ( विकारी ) वर्तता हुआ ( उदीर्णं ) उदित ( यत् शुभम् अशुभम् भावम् ) शुभ या अशुभ भावको ( करोति ) करता है. तो ( सः ) वह आत्मा ( तेन ) उस भाव द्वारा ( विविधेन पुद्गलकर्मणा ) विविध पुद्गलकोंसे (बद्धः भवति ) बद्ध होता है।
टीका--यह, बंधके स्वरूपका कथन है।
पादि वास्तवमें यह आत्मा परके आश्रय द्वारा अनादि कालसे रक्त ( विकारी ) रहकर कोदय के प्रभाव से उदित [ -प्रगट होनेवाले] शुभ या अशुभ भावको करना है, तो वह आत्मा उस निमित्तभूत भाव द्वारा विविध पुगलकर्मोसे बद्ध होता है । इसलिये यहाँ ( ऐसा कहा है कि ), मोह राग द्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे जो जीवके शुभ या अशुभ परिणाम वह भावबंध है
और उनके निमित्त से शुभाशुभ कर्मरूप परिणत पुद्गलोका जीवके साथ अन्योन्य अवगाहनरूप द्रव्यबंध है ।।१४७||
सं० ता० -अथ निर्विकारपरमात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयमोक्षमार्गाद्विलक्षणे बंधाधिकारे “जं सुह'' मित्वादि गाथात्रयेण समुदायपातनिका ।
__ अथ बंधस्वरूपं कथयति,-जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा—यं शुभाशुभमुदीर्ण भावं रक्तः करोति यद्यात्मा । यद्ययमात्मा निश्चयनयेन शुद्धबुद्धकस्वभावोपि व्यवहारेणानादिबंध